Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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फिर नारायण है' । नायिका--"उनको देहकान्ति सोने के समान गौरवर्ण की नहीं है।" स 1--"यदि ऐसी बात है तो वह सब लोगों के मन को आनन्दित करने वाला चन्द्रमा है।" नायिका-"वह निष्कलंक नहीं है ।" सखी-"तब वह कामदेव होगा।" नायिका--"शिवजी की हुंकाराग्निज्वाला में भस्मीभूत उसको कान्ति ऐसी कैसे हो सकती है।"
१..-कारणमाला।
इस अलंकार में कारण से उत्पन्न कार्य आगे कारण बनता जाता है अथवा कार्य का जो कारण है, वह कार्य होता जाता है । हरिभद्र ने शृंखला अलंकार में इस अलंकार की योजना की है। अतः शृंखला अलंकार के जितने उदाहरण पहले लिखे गये हैं, वे सभी इस अलंकार के भी है।
एत्तो कम्मविवुड्ढी, तो भवो, तत्थदुक्खसंघालो।
तत्तो उव्वियमाणो पयहेज्ज तए महापावे ॥ स० ३ । पृ० १६५ । यहां कषाय कर्म वृद्धि का कारण, कर्म से संसार, संसार में दुःख और दुःख से उद्वे : उत्पन्न होता है । अतः महा पापरूप कषायों का त्याग करना चाहिए।
११- एकावली ।
जहां पर वस्तुओं का क्रम से शृंखलाबद्ध वर्णन इस प्रकार होता है कि बाद में कथित वस्तु प्रागे के लिए आधार की कड़ी बनती जाती है, वहां एकावली अलंकार होता है। हरिभद्र ने इसका प्रयोग बहुत ही सुन्दर रूप में किया है ।
रेहन्ति जीए सीमा सरेहि नलिणीवणे हि य सराई ।
कमलेहि य नलिणीओ कमलाइ य भमरवन्हि ॥ स० पृ० ८५६ । उसको सीमाएं जलाशयों से अत्यन्त रम्य हैं, जलाशय कमलिनियों के वनों से; कमलिनियां फले हुए कमलों से और कमलों के फूल मधुपों--भौरों से बहुत ही रम्य है ।
१२--अर्थान्तरन्यास।
सामान्य कथन का विशेष के द्वारा या विशेष का सामान्य के द्वारा समर्थन करने के लिए हरिभद्र ने अर्थान्तरन्यास को कई स्थलों पर यो: । क है । यथा--
(१) काऊण य पाणिवहं जो दाणं देइ धम्मसद्धाए।
दहिऊण चन्दणं सो करेइ अंगारवाणिज्ज ॥ स०प०३। १९१। यहां प्राणिवध कर धर्मश्रद्धा से दान देने रूप सामान्य कथन का समर्थन चन्दन जला. कर कोयला का व्यापार करने रूप विशेष कथन से किया गया है ।
(२) दुल्लहं माणुसत्तणं, जम्मो मरणनिमित्तं, चलानो संपयाओ, दुक्खहे यवो विसया,
संजोगे विनोगो, अणसमयमेव मरणं, दारुणो विवागो ति--स० ३।पृ० १६६ । (३) जस्स न लिप्पइ बुद्धी हन्तूण इमं जगं निरवसेसं ।
पावण सो न लिप्पइ पंकयकोसो व्व सलिलेणं ॥स०४। पू० २६६ । यहां बुद्धि के निलिप्त रहने का समर्थन पंकज से किया गया है।
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