Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 349
________________ रूपक अलंकार का व्यवहार समराइच्चकहा में अनेक स्थलों पर हुआ है । यहां कुछ उदाहरण दिये जाते है :-- (१) मिच्छत्तपंकमग्गपडिबद्ध य सद्धम्मकहणदिवायरोदएणं बोहिऊण भध्वकमलायरे --स० पृ० ६७ । यहां मिथ्यात्व को कीचड़, सद्धर्मोपदेशक को दिवाकर और भव्यजीवों को कमलाकर का रूपक दिया गया है । (२) तित्थयरवयणपंकय-स०पृष्ठ ६२ । यहां तीर्थ कर के मुख को पंकज का रूपक दिया गया है । मुख पर कमल का प्रारोप किया गया है। (३) पडिवक्सनरणाहदोघट्टके सरी--स० पृ० २३४ । यहां किसी प्रतापी नरेश को केसरी कहा गया है, जो प्रतिपक्षी शत्रुओं को नष्ट करने में प्रवीण हैं। (४) दियहनिसाघडिमालं पाउयसलिलं जणस्स घेतूण । चन्दाइच्चबइल्ला कालारहट्ट भमाडे न्ति ।। -स० पृ० २६० । ___इस पद्य में काल-समय को रहट का रूपक दिया गया है । इस रहट के रात्रि और दिन घटिमाल है, प्रायु जल है तथा सूर्य और चन्द्र ये दोनों बैल इस रहट को घुमाते रहते हैं। इस प्रकार यह काल-रहट प्रायु रूपी जल को क्षीण करता रहता है यह सांगरूपक का सुन्दर उदाहरण है। (५) तामलित्तीतिलयभूयं--स० पृ० ३६८ । यहां अनंगनन्दन उद्यान को ताम्रलिप्ति का तिलक कहा है । (६) लज्जावणयवयणकमलं--स० पृ० ३७५ । (७) संपुण्णमयलच्छणमुही-स० पृ० ४०१ । ५-उत्प्रेक्षा । उपमेय या प्रस्तुत की उत्कृष्ट उपमान या अप्रस्तुत के रूप में संभावना या कल्पना करने को उत्प्रेक्षा अलंकार कहते हैं। हरिभद्र ने समराइच्चकहा में इस अलंकार का प्रचुर परिमाण में प्रयोग किया है । उदाहरणः-- (१) मणिपट्टयम्मि निमिया चलणा संकन्तरायसोहिल्ले । तपफंससुहासायणरसपल्लविए व्व विमलम्मि ॥ स० पृ० ६३ । कुसुमावली ने मणि के पट्टे पर अपने पैरों को रखा था, जिससे उसके पैरों की अरुणिमा प्रकट हो रही थी। इस अरुणिमा पर कवि की उत्प्रेक्षा है कि यह अरुणिमा विवाह की प्रसन्नता प्रतीत हो रही है। (२) बद्धं च दइयहिययं व तीए विय. नियम्बबिम्बम्मि । सुरऊसववरतूरं निम्मलमणिमेहलादामं ॥स०पृ० ६५ । उसके नितम्बों पर सुन्दर मणिमेखला--मणि घटित करधनी पहनाई, जो उसके प्रिय के हृदय को बांधने वाले सुरतोत्सव के मंगल-तूर्य के समान प्रतीत होती थी। यह गम्योत्प्रेक्षा है, उत्प्रेक्षा वाचक शब्द का प्रयोग यह हुआ है। (३) अह कलसद्दायड्ढियसभवणवाविरयरायहंसाइं। चलणेसु पिणद्धाइं मणहरमणिने उराई से ॥स० पृ० ६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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