Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
३०६
हरिभद्र ने भाव को तीव्र करने, व्यंजित करने तथा उनमें चमत्कार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया है । जिस प्रकार काव्य को चिरन्तन बनाने के लिये अनुभूति की गहराई और सूक्ष्मता अपेक्षित है, उसी प्रकार अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए अलंकारों की आवश्यकता होती है । हरिभद्र की कविता कामिनी अनाड़ी राजकुलांगना के समान न तो अधिक अलंकारों के बोझ से दवी है और न ग्राम्यबाला के समान निराभरणा ही है । उसमें नागरिक रमणियों के समान सुन्दर और उपयुक्त अलंकारों का समावेश किया गया है ।
प्रस्तुत वस्तु का वर्णन दो तरह से किया जाता है -- एक में वस्तु का यथातथ्य वर्णन -- अपनी ओर से नमक- मिर्च मिलाये बिना और दूसरी में कल्पना के प्रयोग द्वारा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि से अलंकृत करके अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य का निरूपण किया जाता है । कवि की प्रतिभा प्रस्तुत की अभिव्यंजना पर निर्भर है । अलंकार इस दिशा में परम सहायक होते हैं । मनोभावों को हृदयस्पर्शी बनाने के लिए अलंकारों की योजना करना प्रत्येक कार्य के लिये आवश्यक है । हरिभद्र ने प्रस्तुत के प्रति अनुभूति उत्पन्न कराने के लिये जिस अप्रस्तुत की योजना की है, वह स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी है, साथ ही प्रस्तुत की भांति भावोद्रेक करने में सक्षम भी । समराइच्चकहा में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनमें हरिभद्र ने प्रसंग के मेल में अनुरंजक अप्रस्तुत की योजना कर आत्माभिव्यंजन में पूर्ण सफलता प्राप्त की है । वस्तुतः हरिभद्र कथाकार होने के साथ एक प्रतिभाशाली कवि हैं, इन्होंने चर्मचक्षुओं से देखे गये पदार्थों का अनुभव कर कल्पना द्वारा एक ऐसा नया रूप दिया है, जिससे बाहय जगत् और अन्तर्जगत् का सुन्दर समन्वय हुआ है । इन्होंने बाहय जगत के पदार्थों को अपने अन्तःकरण में उपस्थित कर भावों से अनुरंजित किया है और विधायक कल्पना द्वारा प्रतिपाद्य विषय की सुन्दर अभिव्यंजना की है । भाव प्रवणता उत्पन्न करने के लिये रूपयोजना को अलंकृत और संवारे हुए पदों द्वारा प्रयुक्त किया है । दूसरे शब्दों में इसीको अलंकार योजना कह सकते हैं ।
१ -- शब्दालंकार ।
शब्दालंकारों में शब्दों को चमत्कृत करने के साथ भावों को तीव्रता प्रदान करने के लिए हरिभद्र ने अनुप्रास, यमक, श्रृंखला आदि शब्दालंकारों का प्रयोग बड़ी निपुणता के साथ किया है । निम्न पद्य में अनुप्रास और यमक ये दोनों अलंकार दर्शनीय हैं "परम सिरिवद्धमाणं पणट्ठमाणं विसुद्धवरनाणं ।
गयजोअं जोइंस सयंभुवं वद्धमाणं च ।” स० पृ० १
समस्त पद्य
इस पद्य में 'माण' शब्द की आवृत्ति तीन बार की गयी है तथा 'ग' वर्ण की पांच बार और 'जो' की दो बार आवृत्ति हुई है । अतः अनुप्रास अलंकार है । मं वद्धमाणं की आवृत्ति दो बार हुई, है, पर दोनों के अर्थ में अन्तर है, प्रथम वर्द्धमान नाम है और द्वितीय वर्द्धमान वर्धनशील के अर्थ में प्रयुक्त है । अतः यमक भी माना जा सकता है ।
हरिभद्र ने समराइच्चकहा के गद्य और पद्य दोनों भागों में अनुप्रास अलंकार का खुलकर प्रयोग किया है । शायद ही ऐसा कोई पद्य होगा, जिसमें अनुप्रास का प्रयोग न हुआ हो । यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं
( १ )
से चिय बावीसे जाइ जरा - मरणबन्धणविमुक्के । ते लोक्क मत्थयत्थे तित्थयरे भावओ नमह ॥ स०पृ० १ (२) उवणेउ मंगलं वो जिणाण मुहलालिजालसंवलिया । तित्थपवत्तणसमए तिअसविमुक्का कुसुमबुट्ठी ॥
स० पू०२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org