Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अष्टम प्रकरण
हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का काव्यशास्त्रीय विश्लेषण
साहित्य मानव-संवेदनाओं का कलात्मक रूप में अभिव्यक्ति करण है । इसमें भावनाओं, और कल्पनाओं की असीम पृष्ठभूमि अंकित रहती है । जिस प्रकार एक नदी अपने प्रवाह क अनुकूल तटों का निर्माण कर लेती है, उसी प्रकार साहित्य की संवेदना अपने अभिव्यक्तिकरण में सिद्धांतों का निर्माण करती चलती है । अतः साहित्य का तात्पर्य जीवन की किसी महत्वपूर्ण स्थिति के ऐसे प्रस्तुतीकरण से हैं, जिसमें उसके रागात्मक रूपों की सफल अभिव्यंजना होती है । राग मनुष्य की वह प्रवृत्ति है, जो मानव के रूप के साथ संचारित होती है । यह राग प्रवृत्ति स्व और पर की दोनों बाहुओं से समस्त विश्व को अपने कोड़ में समेटे हुए हैं । विश्व की सम्पत्ति के रूप में यह रागात्मक मनोभाव सदैव ही हित-कामना से भरपूर है । अतएव स हित होने के कारण ही साहित्य कहा जाता है ।
साहित्यकार साधारण मनुष्य की अपेक्षा कुछ अधिक भावुक और विचारशील होता हैं, पर वह अपने को अपने तक सीमित नहीं रखना चाहता है । वह अपने हदय का रस दूसरों तक पहुंचाकर उनको भी अपनी तरह प्रभावित करने को उत्सुक रहता है । इस प्रकार काव्य के दो पक्ष हो जाते हैं-- पहला अनुभूति पक्ष और दूसरा अभिव्यक्ति पक्ष । सी को भावपक्ष और कलापक्ष कहा जाता है ।
तात्पर्य यह है कि साहित्य में हम अपने भावों, विचारों, आकांक्षाओं एवं कल्पनाओं का अभिव्यंजन करते हैं और साथ-ही-साथ अपने सौन्दर्य ज्ञान के सहारे उन्हें सुन्दरतम बनाने का प्रयास तथा उनमें एक अद्भुत आकर्षण का आविर्भाव करते हैं । इन्हीं दो मूलतत्वों के आधार पर साहित्य के दो पक्ष हो जाते हैं, जिन्हें हम भावपक्ष और कलापक्ष कहते हैं । साहित्य को दोनों पक्षों में घनिष्ठ संबंध है और दोनों के समुचित सहयोग और सामंजस्य से ही साहित्य को स्थायित्व प्राप्त होता है । साहित्य के विकास के साथ इन दोनों पक्षों का भी विकास होता जाता है ।
हम हरिभद्र की प्राकृत-कथाओं के काव्यशास्त्रीय विश्लेषण के अन्तर्गत उक्त दोनों पक्षों पर विचार करेंगे ।
१ । कलापक्ष
जिस प्रकार मनुष्य में अपने भावों तथा विचारों को व्यक्त करने की स्वाभाविक इच्छा होती है उसी प्रकार उन भावों तथा विचारों को सुन्दरतम बनाने की अभिलाषा भी । यही अभिलाषा साहित्यकला के मूल में रहती है और उसीकी प्रेरणा से स्थूल, नीरस, विश्रंखल विचारों को सूक्ष्म, सरस और श्रृंखलाबद्ध साहित्यिक स्वरूप प्राप्त होता है । भावों को अभिव्यक्त करने का साधन भाषा है और भाषा के आधारभूत शब्द हैं, जो वाक्यों में पिरोये जाने पर अपनी सार्थकता प्रदर्शित करते हैं । अतः शब्दों तथा वाक्यों का निरन्तर संस्कार करते रहने तथा उपयुक्त रीति से उनका प्रयोग करते रहने से ही अधिक-से-अधिक प्रभावोत्पादकता आ सकती है ।
कथा - साहित्य में कलापक्ष के अन्तर्गत कथानक - गठन, चरित्र-नियोजन, संवाद - कौशल आदि गृहीत किये जाते हैं, किन्तु इन सबकी विवेचना यथास्थान की जा चुकी है । प्राचीन कथाकृतियों का लक्ष्य रसानुभूति कराना है, मात्र शील वैचित्र्य का प्रदर्शन नहीं है । अतः कुतूहलवृत्ति और भावुकवृत्ति इन दोनों को उचित और सन्तुलित अस्था में अभिव्यक्त
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