Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(२) सेसपल्ललजलुच्छलन्तुत्तत्थजलयरमुक्कनायबहिरियदिसंमहावि--स पृ० १३ । (३) धम्माधम्मववत्थपरिपालणरओ सयलजणमणाणन्दयारी---स० पृ० १४२ । (४) ता सुमरामो परमं परमपयसाहगं जिणक्खायं--स० पृ० २३२ । (५) वायसरसन्त रयरखं खन्तसिवानायभीसगं भीसगदर रड्डमडयदुरहिगन्धं--
स० पृ० २६० ।। (६) मणहररइयविसेसयविसेसभंगुरकयालयसणाहा ।
सविसे सपेच्छणिज्जा सोहियसंजमियधम्मल्ला ॥ स०७। ६३९ । उपर्युक्त उदाहरणों में निरर्थक और भिन्नार्थक सार्थक वर्णों को पुनरावृत्ति हुई है। भाषा में प्रवाह और प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने के लिए हरिभद्र ने इस अलंकार का प्रयोग किया है।
श्रृंखला नाम का एक नया अलंकार भी हरिभद्र की समराइच्चकहा में आता है। यद्यपि यह श्रृंखला अलंकार यमक से मिलता-जुलता है, पर यथार्थरूप में यमक नहीं है । यतः यमक में दुहराये हुए शब्दांश का एक ही होना आवश्यक है, पर उसी शब्द का रहना आवश्यक नहीं है। श्रृंखला में एक ही शब्द दुहराया जाता है, इसमें शब्दांशों का ठीक एक-सा होना आवश्यक नहीं है।
श्रृंखला एक प्राचीन अलंकार है। इसका प्राचीनतम उदाहरण सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का १५वां अध्ययन है। यद्यपि यह भी यमक से ही निष्पन्न ज्ञात होता है अनुप्रास के समान इसका पूर्वज भी यमक ही है, तो भी इसे यमक से भिन्न कहा जाना चाहिए। यहां यह ध्यातव्य है कि उत्तरकालीन यमक, जिससे अनप्रास की उत्पत्ति हुई है, आरंभ में शब्दों के दुहराने को कहा जाता था। इसके साथ छन्दोबद्ध पद्यों की एक श्रृंखला सम्बद्ध रहती थी।
समराइच्चकहा में गद्य और पद्य दोनों में इस अलंकार का प्रयोग बहु लता से हुआ है। प्रसंगों के अध्ययन से अवगत होता है कि इस अलंकार का व्यवहार हरिभद्र ने भाषा को सशक्त बनाने के साथ विचारों को प्रेषणीय बनाने के लिए किया है। इस अलंकार का प्रधान उद्देश्य प्रतीयमान अर्य को चमत्कृत करना है, और यह कारण है कि जहां यह अलंकार रहता है, वहां अर्थालंकार की दृष्टि से कारणमाला अथवा समुच्चय अलंकार अवश्य उपस्थित रहते हैं। इस अलंकार के निम्नलिखित उदाहरण दर्शनीय हैं:--
(१) ओऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसियचमरं ।
सियचमरदण्डचामीयरप्पहापिजरद्दायं ॥ अदायगयविरायन्तरम्मवरपक्खसुन्दरीवयणं । वरपक्खसुन्दरीवयणजणियबहुपक्खपरिओसं ॥ परिओसपयडरोमंचवन्दिसंघायकलियपरन्तं । परन्तविरइयामलविचित्तमणितारयानिवहं ॥ तारयनिव पसाहियतोरणमुहनिमियसुद्धसलिले हैं।
ससिलेहाविज्जोइयवित्थरसियमण्डवनहं तु ॥ स० पृ० ९९ । (२) नवजलभरियसरोवरविरायन्तकमलायरोकमलायरपसपत्तउम्मत्तमहुरगुंजन्त
भमिरभमरउलो भमरउलुच्छाहियसुरयखिन्नसहरिसकलालाविहंसउलमुहलो मुहलगोयालजुवइपारद्धसरसगेयरवोच्छ पच्छत्तमग्गो सरयसमओ त्ति ।।
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