Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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च० भ० पृ० ३४६ | यह
(१५) अहो माइन्दजालसरिसया जीवलोयस्स - स० संसार इन्द्रजाल ---जाद के समान है । । (१६) प्रचिन्ता मन्तसत्ति-स० द्वि० भ० पृ० १३२ । मन्त्रशक्ति प्रचिन्त्य है ।
( १७ ) किं न संभवन्ति लच्छिनिलयेसु "कमलेसु किमप्रो- स० च० भ० पु० २६८ । क्या सुन्दर कमलों में कीड़े नहीं होते ?
(१८) विसहरगयं व चरियं वंकविवकं महिलयाणं - स० च० भ० पृ० ३०५ । सर्प की टेढ़ी-मेढ़ी चाल के समान महिलाओं का चरित होता है ।
(१६) खयदाढो व्व भुयंगो-- स० च० भ० पृ० ३३७ । विषदन्त रहित सर्व । (२०) न खलु प्रविवेगम्रो अन्नं जोव्वणं - - स० च० भ० ३५१ । विवेकपूर्ण होती हैं ।
युवावस्था
(२१) श्रवज्झा इत्थिय-- स० च० भ० पृ० ३६३ । स्त्रियां अवध्य हैं । (२२) विरला जाणन्ति गुणा विरला जंपन्ति ललियकव्वाई । सामन्नवणा विरला परदुक्ख दुक्खिया विरला - स० म० प० पृ० ३७२ ।
विरले व्यक्ति ही गुणों को जानते हैं, विरले ललित काव्य रचते हैं, सन्यास धारण करनेवाले भी विरले ही होते हैं और विरले व्यक्ति ही पर दुःख दुखित होते हैं ।
(२३) कह तंमि निव्वरिज्जइदुखं कण्डुज्जुएण हियएण ।
अदाए पडिबिम्बं व जंमि दुक्खं न संकमइ ।। स०प० भ० पृ० ३७२ । (२४) श्रविवे इजणबहुमयं कामाहिलासं-स० प० भ० पृ० ३८६ । (२५) दिवसनिसिसमा संजोयविप्रोया-सं० प० भ० पृ० ४०४।
जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन का प्राना अनिवार्य हैं, उसी प्रकार संयोग के पश्चात् वियोग और वियोग के पश्चात् संयोग का होना भी अनिवार्य है ।
(२६) सुमिणसंपत्तितुल्ला रिद्दोश्रो, अमिलाणकुसुममिव खणमेत्तरमणीयं जोठवणं, विजुविलसियंमिव दिट्ठ नट्ठाई सुहाई, प्रणिच्चा पियजणसमागम ति । स० प० भ० पृ० ४१७ ।
स्वप्न में प्राप्त हुई सम्पत्ति के समान ऋद्धि, ताजे पुष्प के समान क्षण भर रमणीय रहने वाले यौवन, बिजली की चंचलता के समान क्षण भर में विलीन होने वाला सुख और प्रियजन समागम अनित्य है ।
(२७) नत्थि टुक्करं मयणस्स - स० प० भ० पृ० ४२१ । कामदेव के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है ।
(२८) दुज्जणजणझि सुकयं प्रसुहफलं होइ सज्जणजणस्स ।
जह, भुयगस्स विदिनं खीरं पि विसत्तणमुवे इ । स० ष० भ० पृ० ५१४ ।
दुर्जन के साथ किया गया उपकार उसी प्रकार अशुभ फल देता है, जिस प्रकार सर्प को दूध पिलाने पर भी विष ही उत्पन्न होता है ।
(२६) प्रयालकुसुमनिग्गमण -- स०ष०भ०पू० ५१५ । व्यर्थ का कार्य ।
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