Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

Previous | Next

Page 324
________________ २९१ पूर्ण चित्रांकन कर देते हैं। जहां तक कथा का प्रसंग है, वहां तक हरिभद्र की शैली में पूरा प्रवाह है । पर उपदेश या धर्मतत्त्व का जब विवेचन आरम्भ करते हैं, उस समय इनकी शैली पारिभाषिक शब्दावली से इतनी अधिक बोझिल हो जाती है, जिससे धर्मशास्त्र के ज्ञाता व्यक्तियों का मन भी ऊबने लगता है । जैनधर्म का सांगोपांग मानचित्र समराइच्चकहा में उपलब्ध होता है । अवान्तर कथाओं में आचार्य उपदेश देने लगता है और उसी उपदेश के माध्यम द्वारा कथानक को आगे बढ़ाना साधारण पाठक के लिए अवश्य दुर्गम्य है । शील निरूपण के अवसर पर नीम- द्राक्षा पद्धति द्वारा प्रतिनायक के नीच स्वभाव और नायक के उन्नत स्वभाव का चित्रण कर शैली को बहुत प्रभावक बनाया है । इस विपरीत पद्धत्ति द्वारा संस्कार विगलित होकर मनोदशा तक पहुंच जाते हैं । पाठक लेखक द्वारा कही गयी बात का यथार्थ अनुभव करने लगता हैं । समराइच्चका में सरल शैली, गुम्फितवाक्य शैली, उक्ति प्रधान शैली, अलंकृत शैली और गूढ़ शैली इन पांचों शैलियों का प्रयोग हुआ है । एक क्रियावाले वाक्यों के साथ अनेक क्रियावाले वाक्य भी उपलब्ध हैं । एक ओर लेखक " पट्टावियं च से नामं हद्दचण्डो त्ति । पत्तो प्रणेगजनसंतावगारयं विसपायवो व्व जोव्वणं । असमंजसं च वहरिउमारद्धो । अन्नया गहि खत्तमुहे । उवणीश्रो राइनो समरभासुरस्त । समाणत्तो वज्झो ।" (स० तृ० भ० पृ० १८४), जैसे एक क्रियावाले सरल वाक्यों का प्रयोग करता है तो दूसरी ओर -- "इम्रो य सो सत्थवाहपुत्तो पडणसमनन्तरमेव समासाइय पुव्वभिन्नबोहित्थफलगो सत्तरतेण समुत्तरिऊण सायरं लवणजलासेवणविगयवाही संपत्तो तीरभायं"(स० च० भ० पृ० २५३) जैसे गुम्फित वाक्य मिलते हैं । लम्बे-लम्बे समास वाले दीर्घकाय वाक्य भी इसी गुम्फित शैली के अंतर्गत श्राते हैं । यह सत्य है कि हरिभद्र ने इस प्रकार की शैली का प्रयोग कम ही स्थलों पर किया है । इस शैली का एक उदाहरण उद्धृत किया जाता है । - हरपडिग्गहं उल्लम्बियसुर हिकुसुमदामनियरं कणयमयमहम हेन्तधूवघडियाउलं पज्जलियविइत्तधूमवत्तिनिवहं चडुलकलहंसपारावयमिहुणसोहियं विरइयकप्पूरवीडयसणाहतम्बोलपडलयं वट्टियविले वणपुण्णविविहवायायणनिमियमणिवट्टयं सुरहि डवासभरियमणोहरोवणीurrrrच्चोलं तप्पियवरवारुणी सुरहिकुसुमसंपाइयमयणपूयं रईए विव सपरिवाराए नयणावलीए समद्धासियं वासगे हंति । स० च० भ० पृ० २६२ । अलंकृत शैली के सन्दर्भों में अलंकारों का सहारा लेकर भाषा को सशक्त बनाया गया है । उपमानों, रूपकों और उत्प्रेक्षाओं ने शैली को मात्र चमत्कृत ही नहीं किया है, बल्कि रसानुभूति या कथारस के आस्वादन में सहयोग प्रदान किया है। यह शैली पाठकों का मनोरंजन कराती हुई गतिशील होती है । हरिभद्र ने अनुप्रास और श्रृंखला द्वारा ललित ध्वनि लहरियों को उत्पन्न किया है । अतः हरिभद्र की अलंकृत शैली की एक विशेषता वर्णमाधुर्य उत्पन्न करना भी है। इसके द्वारा कथाप्रवाह बड़ी तेजी से आगे बढ़ता है और नीरस वर्णन भी सरस प्रतीत होने लगते हैं । यथा " सायं रहविरहियस्स कुसुमचावस्स, इह उवविसउ महाणुभावो " । तो सो सपरिोसं ईसि विहसिऊण - " श्रासि य अहं एत्तियं कालं रहविरहिनो, न उण सपयं" त्ति भणिऊण मुवविठ्ठो । स० द्वि० भ० पृ० ८० । यों तो अलंकरण शैली महाकाव्यों की होती है और अलंकरण के समस्त तत्त्व और गुण महाकाव्यों में प्रमुख रूप से पाये जाते हैं, पर कथा साहित्य में भी अलंकरण का प्रभाव नहीं । वर्णनों को सजीव और चमत्कृत करने के लिए कथाकार को अलंकारों का व्यवहार करना पड़ता है । श्रलंकारों के रहने से भाषा भी सजीव और सौंदर्यपूर्ण हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462