Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्रतिष्ठित होती है। ऐसी कथाएं अपने ऐकान्तिक प्रभाव में अत्यन्त शक्तिशाली और उत्कृष्ट होती हैं। इनके उद्देश्य विन्दु में कई तत्त्वों का सम्मिश्रण रहता है। सफल कथाकार वही माना जाता है, जो प्रत्यक्ष होकर उद्देश्य को प्रकट करता है, पर जो प्रत्यक्ष उपदेश देने लता है वह कथाकार के पद से च्युत हो उपदेशक का पद-ग्रहण कर लेता है और उसकी कथा प्रवचन या वार्ता बन जाती है। ___कुशल कथाकार जिस विशिष्ट उद्देश्य को लेकर चलता है, वह जीवन के अन्तर्जगत्
और बहिर्जगत् दोनों को स्पर्श करता है। इन दोनों क्षेत्रों में वह दृष्टि-सौन्दर्य और हित या उपयोगिता की भावना से प्रोत-प्रोत रहता है। शताब्दियों में जो मानवता का इतिहास चला आ रहा है, वह केवल स्थूल जग। के उपकरणों से ही नहीं बना, अन्तर्जगत् का प्रभाव भी उस पर है। उसमें मात्र रूप ही नहीं है, हृदय भी है। यदि एक ओर अनंग धन की भांति बाहुलता है, तो दूसरी ओर प्रेम की विद्रुम सीपी में मानवता का मोती भी है। अतएव कथाकार रागभावों की अभिव्यंजना के साथ किसी विशेष उद्देश्य को प्रकट करता है। बिना उद्देश्य के कथा का निर्माण नहीं हो सकता है। कथाकार कल्पना से प्रसूत मानव-जीवन के छिपे हुए व्यापक सत्य की भव्य और विशाल अभिव्यंजना किसी विशेष उद्देश्य से ही करने में समर्थ हो सकता है। जीवन और जगत् का मार्मिक चित्रण सोद्देश्य ही संभव है। इसी कारण कथा का अन्तिम तत्त्व उद्देश्य माना गया है।
हरिभद्र की समराइच्चकहा का उद्देश्य संसार के प्रति वैराग्य भावना को पुष्ट करता है। इसकी कथाएं पहले संसार के भौतिक प्रेम से प्रारंभ होती है और अन्त में संसार के संघर्षों से उस भौतिक प्रेम की निस्सारता प्रकट की जाती है। जीवन का संकट, यौवन का अवसान और स्वार्थी व्यक्तियों की कपट मैत्री झलक उठती है और प्रेमी के मन में संसार के माया-मोह से ऐसी प्रतिक्रिया होती है कि वह वैराग्य की ओर झुक जाता है तथा मुनिदीक्षा लेकर वन में तपस्या करने चला जाता है। समराइच्चकहा का प्रमुख उद्देश्य तो निदान तत्त्व का विश्लेषण करना ही है। ग्रन्थकार ने अपने उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है--
सव्वपुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं ।
प्रवराहे सु गुणसु य निमित्तमित्तं परो होई ॥--स०प्र०भ०पृ० २ । १६० मनुष्य अपने पूर्वकृत कर्मों के फल को प्राप्त करता है। बुराई और भलाई की प्राप्ति में अन्य व्यक्ति तो निमित्त मात्र ही होता है । तात्पर्य यह है कि कर्म की धारा में पड़ा व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के किये गये कर्मों के फल को प्राप्त करता है। इस कर्मफल में पर व्यक्ति तो निमित्त मात्र ही होता है । इस गाथा से नियतिवाद जैसी झलक मिलती है, पर हरिभद्र ने आस्रव, बन्ध आदि तत्वों की व्याख्या करते हए कर्मसिद्धांत को स्पष्ट किया है और कर्मफल की विवेचना अनेकान्तात्मक दृष्टि से की गयी है। बताया है--
गण्ठि तिसु दुब्भेप्रो कक्खडघणरूढगूढगण्ठि व्व । जीवस्स कम्मजणिो घणरागदोसपरिणामो ॥--स० प्र० भ० पृ० ५६ जीव के राग-द्वेष परिणामों से उत्पन्न कर्म की गांठ अत्यन्त कर्कश और दुर्भेद्य है। जो प्रशम संवेग, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य रूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है, वह गुणस्थान प्रारोहण द्वारा कर्मों को नष्ट करता है।
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