Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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निद्धूमसिहि सिहाजालसरिसके मरसडाभारभासुरो विमलफलिह - मणिसिला निहस-हंस हारधवला पिंगलवट्टसुपसन्तलोयणो मियंकले हासरिसनिग्गयदाढो पिलमणहरवच्छत्थलो प्रइतणुयमज्झभाश्रो सुवट्टियकठिणकडियडो प्रावलियदीहलगूलो सुपइट्टिश्रोरुसंठाणो कि बहुणा, सव्वंगसुन्दराहिरामो सोहकिसोरगो वयणे णमुयरं पविसमाणो त्ति। स० पृ० २७६ ॥
नाद सौंदर्य की दृष्टि से कवि जहां युद्ध भूमि या युद्ध का वर्णन करता है, वहां कठोर ध्वनियों का व्यवहार करता है । उन ध्वनियों के श्रवण से ही रणक्षेत्र की अनुभूति होने लगती है । शृंगार या किसी मधुर दृश्य के वर्णन में शब्दों का प्रयोग भी मधुर हो जाता है । ध्वनि श्रवण मात्र से दृश्य का अनुमान किया जा सकता है ।
समराइच्चकहा में प्रतीकों का प्रयोग और प्रसंगगर्भत्व का नियोजन बड़े सुन्दर ढंग से हुआ है । श्रमत्तिक और अतीन्द्रिय भावों का साकार चित्रण करने में लेखक को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है ।
हास्य और व्यंग की प्रतिभा भी हरिभद्र में हैं। धूर्त्ताख्यान की व्यंगात्मक शं के अतिरिक्त समराइच्चकहा में भी यथास्थान व्यंग का प्रयोग मिलता है । दशवं कालिक की टीका में उद्धृत लघुकथानों में कई कथाएं हास्यरस प्रधान हैं। हिंगुशिव ८७) कथा में श्राद्यन्त व्यंग व्याप्त हैं । ग्रामीण गाड़ीवान (द० हा० पृ० इतना बड़ा लड्डू (द० हा० पृ० १२१ ) में हास्य और व्यंग्य दोनों हैं । सरल और सरस ढंग से लिखी गयी हैं, जिससे पाठक बिना किसी प्रभास करता चलता है । मस्तिष्क पर जोर नहीं देना पड़ता । य-
जहा तुमं खडुयं मोदगं गगरदार ठवित्ता भण एस मोदगो ण णीसरइ नगरदारेण.... ' द० हा० पृ० १२२ ।
अतः स्पष्ट है कि हरिभद्र की व्यंग प्रतिभा जन्मजात है । प्रायः अधिकांश वणनों की उपस्थापना व्यंगात्मक शैली में की गयी है । लघु कथाओं में भी कोमल, ललित और मधुर भावनाओं की अभिव्यक्ति में ध्वनि लालित्य और श्रुति - कोमलता विद्यमान है । उद्धृत और उग्र भावनाओं की अभिव्यक्ति के अवसर पर प्रोजपूर्ण ध्वनियों का प्रयोग हरिभद्र ने सफलतापूर्वक किया है ।
समराइच्चकहा में शैली को प्रभावशाली बनाने के लिए श्रमिधा के साथ लक्षणा और व्यंजना के प्रयोग भी मिलते हैं । यहां कुछ लाक्षणिक प्रयोगों की चर्चा की जाती है ।
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(द० हा० ११८ ) और कथाएं इतने के मनोरंजन
"मोयावह कालघण्टापोएण ममरज्जे सव्वबन्धणाणि" (स० प्र० भ० पृ० ३१-३२) में बन्धन पद लाक्षणिक हैं। यहां लक्षणा द्वारा कारागृह बद्ध बन्दीजनो को मुक्त करने का आदेश दिया गया है । " महग्धगुणरयणभूसिया" (स० तृ० भ० पृ० १७० ) में गुणरयण शब्द में लक्षणा है। यहां पर लक्षणाशक्ति द्वारा गुणरत्न शब्द रत्नत्रय का बोधक है । " एसावच्चइ रयणी विवण्णमुही" (स० च० भ० पृ० २६५) पद्य में रात्रि का केशों से रहित विवर्णमखी होने रूप मुख्यार्थ में बाधा है । रात्रि की समाप्ति और प्रातःकाल के होने का अर्थ बोध होता है । इस प्रकार हरिभद्र ने अपनी भाषा शैली को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए लाक्षणिक पदों का प्रयोग प्रचुर परिमाण में किया है ।
अतः लक्षणा रा
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व्यंजक पदों की भी कमी नहीं हैं । सोमदेव शर्मा द्वारा राजा गुणसेन के धर्मात्मा कहे जाने पर श्रग्निशर्मा उत्तर देता है- -" को प्रश्नो धम्मपरो" ( भ० पृ० ४० ) उससे बड़ा धर्मात्मा कौन हो सकता है, जो साधुनों के प्राण लेता है। यहां अग्निशर्मा द्वारा गुणसेन का धर्मात्मा कहा जाना बहुत बड़ा व्यंग्य है। इससे ध्वनित होता है। कि जो साधुनों की हत्या करता है या जो साधनों के साथ मजाक करता है और उन्हें कष्ट देता है, वह कैसे धर्मात्मा हो सकता है ?
१६- २२ एड०
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