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पूर्ण चित्रांकन कर देते हैं। जहां तक कथा का प्रसंग है, वहां तक हरिभद्र की शैली में पूरा प्रवाह है । पर उपदेश या धर्मतत्त्व का जब विवेचन आरम्भ करते हैं, उस समय इनकी शैली पारिभाषिक शब्दावली से इतनी अधिक बोझिल हो जाती है, जिससे धर्मशास्त्र के ज्ञाता व्यक्तियों का मन भी ऊबने लगता है । जैनधर्म का सांगोपांग मानचित्र समराइच्चकहा में उपलब्ध होता है । अवान्तर कथाओं में आचार्य उपदेश देने लगता है और उसी उपदेश के माध्यम द्वारा कथानक को आगे बढ़ाना साधारण पाठक के लिए अवश्य दुर्गम्य है । शील निरूपण के अवसर पर नीम- द्राक्षा पद्धति द्वारा प्रतिनायक के नीच स्वभाव और नायक के उन्नत स्वभाव का चित्रण कर शैली को बहुत प्रभावक बनाया है । इस विपरीत पद्धत्ति द्वारा संस्कार विगलित होकर मनोदशा तक पहुंच जाते हैं । पाठक लेखक द्वारा कही गयी बात का यथार्थ अनुभव करने लगता हैं ।
समराइच्चका में सरल शैली, गुम्फितवाक्य शैली, उक्ति प्रधान शैली, अलंकृत शैली और गूढ़ शैली इन पांचों शैलियों का प्रयोग हुआ है । एक क्रियावाले वाक्यों के साथ अनेक क्रियावाले वाक्य भी उपलब्ध हैं । एक ओर लेखक " पट्टावियं च से नामं हद्दचण्डो त्ति । पत्तो प्रणेगजनसंतावगारयं विसपायवो व्व जोव्वणं । असमंजसं च वहरिउमारद्धो । अन्नया गहि खत्तमुहे । उवणीश्रो राइनो समरभासुरस्त । समाणत्तो वज्झो ।" (स० तृ० भ० पृ० १८४), जैसे एक क्रियावाले सरल वाक्यों का प्रयोग करता है तो दूसरी ओर -- "इम्रो य सो सत्थवाहपुत्तो पडणसमनन्तरमेव समासाइय पुव्वभिन्नबोहित्थफलगो सत्तरतेण समुत्तरिऊण सायरं लवणजलासेवणविगयवाही संपत्तो तीरभायं"(स० च० भ० पृ० २५३) जैसे गुम्फित वाक्य मिलते हैं । लम्बे-लम्बे समास वाले दीर्घकाय वाक्य भी इसी गुम्फित शैली के अंतर्गत श्राते हैं । यह सत्य है कि हरिभद्र ने इस प्रकार की शैली का प्रयोग कम ही स्थलों पर किया है । इस शैली का एक उदाहरण उद्धृत किया जाता है ।
- हरपडिग्गहं उल्लम्बियसुर हिकुसुमदामनियरं कणयमयमहम हेन्तधूवघडियाउलं पज्जलियविइत्तधूमवत्तिनिवहं चडुलकलहंसपारावयमिहुणसोहियं विरइयकप्पूरवीडयसणाहतम्बोलपडलयं वट्टियविले वणपुण्णविविहवायायणनिमियमणिवट्टयं सुरहि डवासभरियमणोहरोवणीurrrrच्चोलं तप्पियवरवारुणी सुरहिकुसुमसंपाइयमयणपूयं रईए विव सपरिवाराए नयणावलीए समद्धासियं वासगे हंति । स० च० भ० पृ० २६२ ।
अलंकृत शैली के सन्दर्भों में अलंकारों का सहारा लेकर भाषा को सशक्त बनाया गया है । उपमानों, रूपकों और उत्प्रेक्षाओं ने शैली को मात्र चमत्कृत ही नहीं किया है, बल्कि रसानुभूति या कथारस के आस्वादन में सहयोग प्रदान किया है। यह शैली पाठकों का मनोरंजन कराती हुई गतिशील होती है । हरिभद्र ने अनुप्रास और श्रृंखला द्वारा ललित ध्वनि लहरियों को उत्पन्न किया है । अतः हरिभद्र की अलंकृत शैली की एक विशेषता वर्णमाधुर्य उत्पन्न करना भी है। इसके द्वारा कथाप्रवाह बड़ी तेजी से आगे बढ़ता है और नीरस वर्णन भी सरस प्रतीत होने लगते हैं । यथा
" सायं रहविरहियस्स कुसुमचावस्स, इह उवविसउ महाणुभावो " । तो सो सपरिोसं ईसि विहसिऊण - " श्रासि य अहं एत्तियं कालं रहविरहिनो, न उण सपयं" त्ति भणिऊण मुवविठ्ठो । स० द्वि० भ० पृ० ८० ।
यों तो अलंकरण शैली महाकाव्यों की होती है और अलंकरण के समस्त तत्त्व और गुण महाकाव्यों में प्रमुख रूप से पाये जाते हैं, पर कथा साहित्य में भी अलंकरण का प्रभाव नहीं । वर्णनों को सजीव और चमत्कृत करने के लिए कथाकार को अलंकारों का व्यवहार करना पड़ता है । श्रलंकारों के रहने से भाषा भी सजीव और सौंदर्यपूर्ण हो जाती है ।
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