Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
२६७
इस कथानक रूढ़ि द्वारा हरिभद्र ने अपनी कथा में निम्न बातों को उत्पन्न किया
(१) घटनाओं की नई मोड़, (२) कथा में चमत्कार,
३) कथारस की सृष्टि, (४) कथानक की गतिशीलता, (५) भाव और विचारों को अन्विति ।
२--व्यन्तरी द्वारा प्रेम याचना और रूपान्तर द्वारा
नायक को धोखा। इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग समराइच्चकहा के अष्टम भव की कथा में हुआ है। सुसंगता गणिनी अपनी आत्मकथा कहती हुई बतलाती है कि मेरे पति के सुन्दर रूप को देखकर मनोहरा नाम की यक्षिणी--व्यन्तरी मुग्ध हो गयी और उनसे प्रेम याचना करन लगी। जब उसका मनोरथ सफल न हुआ तो उसने जब में शयन कक्ष से निकल कर किसी कार्य से बाहर गयी हुई थी, मेरा जैसा रूप बनाकर वह मेरे स्थान पर सो गयी। उसने राजा से मेरे ही समान चेष्टाएं की। जब में कार्य सम्पन्न कर घर में प्रविष्ट हुई तो अपने स्थान पर अपने ही समान एक सुन्दरी को पाया। मैंने अपने पतिदेव से निवेदन किया, तो उन्होंने भ्रमवश मुझे ही घर से निकाल दिया। __इस कथानक रूढ़ि के द्वारा हरिभद्र ने कथा को गतिशील बनाया है। कया इस स्थल से नाना प्रकार की भंवरों को उत्पन्न करती हुई प्रवाहित हुई हैं।
३--व्यन्तरी द्वारा बलिदान की मांग
नायक को कयाफल की प्राप्ति में अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़े, इसके लिए कथाकार एक व्यन्तरी की योजना करता है । जब नायक कोई साहसिक कार्य सम्पन्न करता है अथवा किसी स्थान से धनादि की प्राप्ति करता है, उस समय व्यन्तरी बलिदान की मांग करती है। नायक अपनी उदारतावश स्वयं का ही बलिदान करना चाहता है, पर बलिदान के स्थान पर उसे धन या किसी सुन्दरी का लाभ हो होता है। हरिभद्र ने छठवें भव की कथा में इस कथानक अभिप्राय का प्रयोग किया है। धरण स्वर्ण द्वीप से अपरिमित स्वर्ण इष्टिका ले जाने लगा। इस द्वीप को स्वामिनी वाणमन्तरी कहने लगी--बलिदान दिये बिना यहां से स्वर्ण नहीं ले जाया जा सकता है। धरण अपनी पत्नी लक्ष्मी को अपने मित्र के साथ जलयान द्वारा भेज देता है और स्वयं अपने को बलिदान के रूप में समर्पित कर देता है। व्यन्तरी धरण के प्राण लेना ही चाहती है कि हेमकण्डल आकर उसके प्राणों की रक्षा करता है।
इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग अनेक दन्तकथाओं और लोककथानों में भी पाया जाता है । इसके द्वारा कथाकार निम्न कार्य सिद्ध करता है:--
(१) कथा में चमत्कार, (२) प्राश्चर्य तत्त्व की योजना, (३) कथानक में मोड़, (४) गति एवं वक्रता।
१---द० हा०,१० ५४३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org