Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
२६६
प्राचीन धर्मों में यह विश्वास दिखलाई पड़ता है। मनीषियों का विश्वास है कि प्रात्मा का व्यक्तित्व शरीर के मृत हो जाने पर भी बना रहता है। इसीके परिणामस्वरूप प्रात्मा के प्रावागमन अथवा भूत-प्रेत में विश्वास करने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है।
भूत-प्रेतों के अलावा अप्राकृतिक या अमानव ऐसे भी प्राणी हैं, जो मानव आकृति के होते हुए भी विशालता और शक्ति में मानव से बहुत आगे है। ये असंभव और असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं। विद्याधर इसी कोटि के प्राणी माने जा सकते हैं। नृशास्त्रज्ञों का मत है कि यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर, नाग आदि हिमालय प्रदेश की जातियां थीं, जो कला-कौशल, नृत्य-संगीत, शृंगार-विलास, रसायन, तन्त्र प्रादि में बहुत आगे बढ़ी हुई थी।
कथा के क्षेत्र में अलौकिक और अमानवीय शक्तियों से सम्बन्धित लोक-विश्वासों ने बहुत प्रभावित किया है। पुराण-कथाओं और निजधरी पाख्यानों की सृष्टि भी इन्हीं विश्वासों के आधार पर हुई है। हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में इस श्रेणी को निम्न कथानक-रूढ़ियां पायी जाती हैं :--
(१) राक्षस या व्यन्तर का वार्तालाप, (२) व्यन्तरी की प्रेम याचना और रूपान्तर द्वारा नायक को धोखा देना, (३) व्यन्तरी द्वारा बलिदान की मांग, (४) व्यन्तर द्वारा विचित्र कार्य, (५) विद्याधरों द्वारा फलप्राप्ति के लिए नायक को सहयोग, (६) विद्याधरों का संसर्ग, (७) अदृश्य शक्ति द्वारा कार्यसाधन ।
१--राक्षस या व्यन्तर का वार्तालाप
दशवकालिक को हरिभद्र-वृत्ति में राक्षस और व्यन्तर इन दोनों के वार्तालाप रूप कथानक रूढ़ि का प्रयोग हुआ है। बताया गया है कि राजा श्रेणिक को एक स्तम्भ का प्रासाद तैयार कराना था। उसने अपने यहां के शिल्पियों को प्राज्ञा दी कि यह प्रासाद शीघ्र ही बन जाना चाहिए। लकड़ी काटने वाला वन में गया और एक सीधा वृक्ष देखकर उसके पास खड़ा हो गया और कहने लगा--जिसने इस वृक्ष को अभिभूत किया है, वह दर्शन दे। प्रकट होने पर मैं इस वृक्ष को नहीं काटूंगा, अन्यथा में इस वृक्ष को अभी काट दूंगा। इस बात को सुनकर वृक्षवासी व्यन्तर ने अपना दर्शन दिया और कहा-- “प्राप इस वृक्ष को न काटें, मैं एक स्तम्भ का प्रासाद बना दंगा, जो सभी ऋतुओं में प्रानन्द और आराम देने वाला होगा।" इसके पश्चात् उस व्यन्तर ने वह विचित्र भवन बना दिया।
इसी कथा में आगे वैश्यपुत्री और राक्षस के वार्तालाप का जिक्र आया है। माली के पास जाते समय उस वैश्यपुत्री को एक चोर ने पकड़ लिया और चोर से छटने पर उसे राक्षस ने पकड़ा। जब राक्षस को उसका सत्य समाचार अवगत हो गया, तो उसने उसे प्रसन्न होकर छोड़ दिया।
१-- द० हा०, पृ० ८१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org