Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(३) मुख - - कथा का प्रारंभ |
(४) प्रतिमुख - - कथा का आरंभ और फल की श्रोर प्रस्थान ।
(५) शरीर - - कथा का विकास और प्राप्ति, प्रयत्न और नियताप्ति की स्थिति । (६) उपसंहार -- फल की प्राप्ति ।
पउमचरिय में चरिय के सात शरीरावयव बताये हैं । इन सातों अवयवों की पूर्णता में ही पुराण और चरित की समग्रता मानी जाती है ।
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(१) स्थिति - देश, नगर, ग्राम श्रादि का वर्णन |
(२) वंशोत्पत्ति -- वंश, माता-पिता, वंश, ख्याति श्रादि का निरूपण ।
(३) प्रस्थान -- विवाह, उत्सव, राज्याभिषेक प्रभृति का वृत्तांत |
(४) रण -- राज्य विस्तार या राज्य संरक्षण के लिए युद्ध ।
(५) लवकुशोत्पत्ति -- साधारण क्षेत्र में या अन्य चरितों में सन्तानोत्पत्ति ।
(६) निर्वाण -- संसार से विरक्ति, आत्मकल्याण में प्रवृत्ति एवं धर्मदेशना श्रवण या वितरण आदि का निरूपण ।
(७) अनेक भवावली -- अनेक भवावलियों का वर्णन, भवान्तर या प्रासंगिक कथाओं
का सघन वितान ।
अतएव स्पष्ट है कि भोगायतन स्थापत्य द्वारा कथा के समस्त अंगों की पुष्टि कर कथा में रस का यथेष्ट संचार करना है । जिस प्रकार अन्धा, लूला, लंगड़ा शरीर निन्द्य माना जाता है और उसकी उपयोगिता या उसके सौन्दर्य में हीनता श्रा जाती है । अतः वह लोगों को आकर्षण की अपेक्षा विकर्षण का ही साधन होता है । विरूपता या विकलांगता के कारण वह कला की दृष्टि से विगर्हणीय माना जाता है, इसी प्रकार जिस कथा में उक्त छः या सात अंगों की पूर्णता नहीं रहती हैं, वह कथा भी अपूर्ण और विकृत समझी जाती है ।
साहित्य शास्त्र के अनुसार कथा में वस्तु, नेता और रस ये तीन तत्व माने जाते हैं । प्राधुनिक समालोचक कथावस्तु, पात्र, कथोपकथन, वातावरण, भाषा-शैली और उद्देश्य ये छः तत्त्व मानते हैं । श्रतः कथा का शरीर इन छः तत्त्वों से पूर्ण होता है । जीवन श्रौर जगत् से कथानक ग्रहण कर घटनाओं और परिस्थितियों से कथा का ढांचा खड़ा करना कथावस्तु के अन्तर्गत है । कथा की प्रारंभिक अवस्था में कथावस्तु ही सब कुछ होती हैं । कथानक में घटनाओं और परिस्थितियों को अद्भुत योजना और इतिवृत्तात्मक स्थूलता को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है । प्राकृत कथाकारों ने कथानक संगठन में जिन घटनाओं का योग लिया है, उनमें पूरा तारतम्य रखा है । भोगायतन स्थापत्य का यह प्रमुख गुण है कि कथानक संघटना में तारतम्य को प्रमुखता दी जाती है । कथानक के सौष्ठव की रक्षा के लिये घटनाओं के स्वाभाविक विकास और प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने की पूर्ण चेष्टा की जाती है । कथानकों के दोनों रूपों का प्रयोग इस स्थापत्य के अन्तर्गत आता है
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१ । स्थूल कथानक ।
२ । सूक्ष्म कथानक ।
स्थूल कथानक में केवल घटनाओं का बाहुल्य रहता है । घटना चमत्कार की ओर लेखक का विशेष ध्यान रहने से चरित्र चित्रण एवं अनुभूति विश्लेषण में न्यूनता श्रा जाती
१ -- पउमचरिय १। ३२ ।
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