Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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समराइच्चकहा में चोर और पल्लीपतियों का वर्णन हरिभद्र ने खूब विस्तार के साथ किया है। ऐसा अनुमान होता है कि इस प्रकार के प्रसंगों के लिए हरिभद्र ने विपाकसूत्र में वर्णित अभग्नसेन जैसे चोर पल्लीपति तथा इसे वश करने के लिए महाबल नरेश द्वारा भेजे गये दंडनायक जैसे संदर्भो से अवश्य प्रेरणा ग्रहण की होगी। पंचम और षष्ठ भवों में चारों का वर्णन पाया है। हरिभद्र के द्वारा वर्णित चोर इतने प्रवीण हैं कि वे अभग्नसेन के समान राजभाण्डार से भी चोरी करने में नहीं चूकते हैं । साधारण जनता तो इनके कौशल के सामने नतमस्तक ही है'।
कर्म-परम्परा, पुनर्जन्मवाद और कर्मफल के निरूपण में हरिभद्र ने विपाकसूत्र से पूरी तरह सहायता ग्रहण की है । तरवार्थसूत्र के छठवें और सातवें अध्याय के कर्मास्तव और व्रत सम्बन्धी नियमों से भी हरिभद्र ने प्रभाव ग्रहण किया है। शुभकर्म के फल से व्यक्ति श्रेष्ठ कुल, श्रायु, वैभव आदि को प्राप्त करता है और अशुभ कर्म के उदय से व्यक्ति को निकृष्ट कुल, शारीरिक और मानसिक कष्ट प्राप्त होता है । स्वर्ग और नरक वर्णन भी विपाकसूत्र से लिया गया मालूम पड़ता है । कर्मवाद और कर्मफल का महत्व दिखलाने के लिए विपाकसूत्र के पाख्यान निदान और पुनर्जन्म की व्याख्या में बहुत ही प्रेरक और सहायक है। अतः प्रसंगों को सारभूत बनाने के लिए हरिभद्र ने विपाकसूत्र से विचार और भावनाओं को ग्रहण किया होगा।
उत्तराध्ययन का मृगापुत्र प्राख्यान भी हरिभद्र को अपने पात्रों को विरक्ति की ओर ले जाने में प्रेरक ही हुआ होगा। हरिभद्र की समस्त प्राकृत कथाओं का अन्तिम उद्देश्य पात्रों को प्रात्मकल्याण में लगाना है। संसार की अनित्यता, स्वार्थपरता, षड्यंत्र एवं नानाप्रकार की मूढ़ताएं समझदार व्यक्ति को सावधान होने के लिए चेतावनी देती है। अतः बीसवां, इक्कीसवां, बाईसवां और पच्चीसवां अध्ययन वर्णनों को चिन्तनशील बनाने के लिए उपादेय है। हरिभद्र ने इन अध्ययनों का उपयोग अपनी कथाओं में धर्मतत्त्वों का समावेश करने के साथ प्राचार्यों द्वारा संसार की अनित्यता प्रतिपादित कराने के लिए प्राचार सम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन करन क लिए भी किया होगा। मनिधमक तत्वों का जैसा वर्णन हरिभद्र ने किया है, वह प्राचारांग और उत्तराध्ययन की भूमिका में ही संभव हो सकता है।
नायाधम्मकहानों से समराइच्चकहा में कोई पूरा प्राख्यान तो लिया गया प्रतीत नहीं होता है, पर इतना अवश्य कहा जायगा कि नायाधम्मकहाओं को वर्णन शैली और सन्दर्भो का प्रभाव उक्त ग्रंथ पर अवश्य है । समराइच्चकहा में प्रायः सर्वत्र प्राता है कि निदानदोष के कारण जब प्रतिनायक नायक को देखता है तो उसका क्रोध उमड़ आता है और वह उसे कष्ट देने लगता है । यही प्रवृत्ति नायाधम्मकहाओं में भी पायी जाती है। बताया गया है--"तए णं से कलभए तुम पासइ २ तं पुव्ववे समरइरं २ पासुत्ते स? कुविए चण्डिविकए--दिसं पडिगए।"
महाभारत और पुराण तो भारतीय प्राख्यान के कोष ग्रंथ हैं । हरिभद्र जैसे बहुज्ञ ने इन ग्रंथों से भी अपने प्राकृत कथा साहित्य के निर्माण में अवश्य सहयोग लिया होगा। समराइच्चकहा के नवम भव की कथा में समरादित्य अपने माता-पिता की प्रसन लिए विभ्रमवती और कामलता नामक दो युवतियों से विवाह कर लेता है, पर उन दोनों को
१--एवं खलु सामी ! सालाडबीए चोरपल्लीए----------अम्हे -----------वही तृ.अ.
पृ० २४१--२४८ । २-- एन० वी० वैद्य द्वारा सम्पादित नाया०, पृ० ३७ ।
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