Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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करते हैं। हरिभद्र के घटना तन्त्र का प्राधार पुनर्जन्मवाद है। जीवन की प्रत्ययजनक यथार्थता के साथ उसमें आकस्मिकता का तत्त्व भी निहित है। "निदान" तत्व के कारण हरिभद्र के पात्रों में एक स्वयंसिद्ध प्रवृत्ति पायी जाती है, जिससे वे घटनाओं के वात्याचक्र में स्वयं कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं।
हरिभद्र के प्लॉट में पुनर्जन्म वही काम करता है, जो आधुनिक कथाओं के प्लॉट में चांस। इन्होंने प्लॉट को कर्मवाद से सम्बद्ध करके कथाओं की श्रृंखला बांधी है। पुनर्जन्म को उद्धाटक जैनमुनि तथा कर्मवाद के भोक्ता नायक-नायिका दोनों ही उस युग के विश्वासों के अनुरूप कौतूहल आद्योपान्त बनाये रखते हैं, पर उपसंहार में कथासूत्र के मोती खुल जाते हैं। "निदान" तत्त्व के कारण प्रधान कथा और अवान्तर कथाओं की संगति, संगठन और संभवता ये तीनों ही कथानक के गुण हरिभद्र की समराइच्चकहा में पाये जाते हैं। संगति से तात्पर्य है कि हरिभद्र के द्वारा आयोजित घटनाएं और कथानक सार्थक है। कथानकों में कार्य-कारण की श्रृंखला के अनुसार तारतम्य पाया जाता है। सारी घटनाएं विभिन्न फूलों की तरह है', हरिभद्र ने इन्हें पिरोकर माला बनाने का कार्य किया है। कथानकों में विशृंखलता कहीं नहीं पायी जाती है। संभवता का अर्थ है स्वाभाविकता। जितने भी कथानक हैं, वे सभी स्वाभाविक है, बुद्धिगम्य है और है विश्वास के योग्य । अतः हरिभद्र के कथानक कथा साहित्य की दृष्टि से अनुपम है। श्री विनोद शंकर व्यास ने कथा साहित्य की सफलता के लिये कथानक की श्रेष्ठता का विवेचन करते हुए बताया है-- ___ मनुष्य का स्वभाव है कि दृश्यों के पूरे समूह को वह अपनी स्मृति में तबतक नहीं ला सकता, जबतक कोई ऐसा दृश्य न हो, जिसका उसके ह.दय पर गहरा प्रभाव न पड़ा हो। यदि एक भी ऐसा दृश्य हुआ तो शीघा ही उससे सम्बद्ध अन्य दृश्य अपने आप उपस्थित हो जायेंगे। यही बात उपन्यासों के विषय में भी है। कथानक के प्रारम्भ में अनेक घटनाएं तथा एक के बाद दूसरे कथानक आते है, किन्तु अन्त में सब एक ही लक्ष्य की ओर केन्द्रित होकर परिणाम में अन्तनिहित हो जाते हैं। परिणाम द्वारा सम्पूर्ण उपन्यास स्मृति कोष में आ जाता है ।
हरिभद्र वह चित्रकार है, जो चित्र के अवयवों को चित्रित कर लेने के बाद एक बार उस चित्र पर अन्तिम रंगामजी करता है और वह सजीव हो उठता है। हरिभद्र ने अपने कथानक-सूत्रों को इतने कलात्मक ढंग से संजोया है कि निदान की कड़ी-पर-कड़ी जोर देने के उपरान्त भी कथानक अस्पष्ट और बोझिल नहीं हैं। यह सत्य है कि कथानक पात्रों को चारों ओर से घेरे हुए हैं और पात्र भी कथानक के अंग है तथा पात्रों की क्रीड़ाएं जीवन की कठिनाइयों और विषमताओं को अभिव्याप्त भी करती है चारित्रिक दबेलताएं, मानव-जीवन के क्लेश और कठिनाइयां भी कथानको की अवतारणा में पूरा सहयोग देती है। हरिभद्र ने कथानक के भीतर उपकथानकों की भी योजना की है, पर कथानक के सभी अंग उसको केन्द्रीय योजना के सहायक होकर ही आये है, उसमें प्रयुक्त प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक शब्द कथा को अग्रसर करने में सहायक हैं। हरिभद्र की कथानक योजना में निम्न विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं :--
(१) कथानक के बन्धन में पड़कर चरित्रों का कुरूप न होना। (२) कथानकों में कार्य-व्यापार की गतिशीलता का पाया जाना । (३) घटनाओं की विविधता और सम्बन्धों की अनेकरूपता की रक्षा। (४) कथानकों में समय की गति और अपने युग के विश्वासों का उद्घाटन ।
१--उपन्यास कला, पृ० ११८-११६ ।
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