Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अधिक प्यार करती है । वह स्वयं काम में समय व्यतीत करने पर भी अपने लाडले को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती । उसकी कामना रहती है कि पुत्र सुखी रहे, चाहे वह कहीं क्यों न चला जाय । पुत्र की मंगल कामना माता का विशेष गुण है ।
कथा में बताया गया है कि एक मुकदमा तीन दिनों से चल रहा था, पर उसकी पेचीदगी के कारण उसका निर्णय नहीं हो सका था । बात यह थी कि दो महिलाएँ एक पुत्र के लिये झगड़ रही थीं । एक ही पुत्र पर दोनों का अधिकार था । व दोनों ही उसे समानरूप से प्यार करती थीं। दोनों ही पुत्र को अपना बतलाती थीं । दोनों ने इस बात के निर्णय के लिये न्यायालय में विवाद उपस्थित किया था कि वस्तुतः पुत्र का अधिकारी कौन है । राजा, मंत्री आदि सभी इस निर्णय में व्यस्त थे, पर यथार्थ निर्णय करने की क्षमता किसी में नहीं थी । एक अजनबी परदेशी प्राया और न्यायालय का प्रवेश लेकर उस विवाद का निर्णय करने लगा। उसने दोनों ही महिलाओं को बुलाकर कहा कि – “श्रापलोग समझौता नहीं करती हैं, इसलिये मैं इस पुत्र के दो हिस्से काट कर किये देता हू, श्रापलोग एक-एक हिस्सा ले लीजिये । इस प्रकार जायदाद के भी दो हिस्से कर एक-एक हिस्सा आपलोगों को दे दिया जायगा ।" जिसका वास्तविक पुत्र था, वह रोने लगी और बोली श्राप पुत्र और जायदाद दोनों ही उसे सौंप वें, मुझे कुछ नहीं चाहिये । पुत्र जीवित रहेगा, तो मेरा मन उसे देखकर ही प्रानन्द की अनुभूति कर लिया करेगा। मुझे जायदाद से प्रिय पुत्र का जीवन है । अतः मैं जाती हूँ, आप पुत्र इसे दे दीजिये । आगन्तुक न्यायाधीश सारा तथ्य समझ गया और उसने यथार्थ मां को पुत्र सौंप दिया । इससे स्पष्ट है कि मां का वात्सल्य पुत्र के प्रति अपार होता है । हरिभद्र ने मातृवात्सल्य का निरूपण अपनी कथानों में पर्याप्त मात्रा में किया है । मातृप्रेम, पितृप्रेम, अदि का भी सुन्दर विश्लेषण हरिभद्र की प्राकृत कथानों में विद्यमान है ।
(२) स्वस्थ शृंगारिकता-
हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में प्रेम तत्व का यथेष्ट सन्निवेश हैं । नैसर्गिक प्रेम में कामना उपस्थित रहती है, पर अश्लीलता या कुत्सित प्रेम इसमें नहीं हैं । कामवासना या सौन्दर्यलोक से जनित प्रेम विशद्ध कहलाने का अधिकारी नहीं है । यह ध्यातव्य है कि हरिभद्र ने अपनी कथाओं में श्रृंगाररस की मर्यादा सुरक्षित रखी है । यद्यपि इस मर्यादा का सम्बन्ध अभिजात साहित्य के साथ भी है, पर दोनों के गुण धर्मो में अन्तर है । लोककथाओं के प्रेम में प्रदर्शन की बात नहीं रहती है, पर अभिजात कथाओं के नायक-नायिकाओं में प्रेम भावना वस्तु का स्थान ले लेती है । फलतः प्रेम लोककथाओं में अनगढ़ रूप में उपस्थित रहता है और अभिजात साहित्य में इसके ऊपर पालिश कर दी जाती है । हरिभद्र की कथाओंों में नयनावली और अनंगवती जैसी प्रेमिकाएँ वासनाग्रस्त दिखलायी पड़ती हैं । इसका यह रूप भी लोककथाओंों में समान है । लोककथाओं के श्रृंगार तत्त्व की यथार्थ जानकारी प्राप्त करने के लिये सामाजिक परम्पराओं की पृष्ठभूमि का अवलोकन करना परम श्रावश्यक है । यह पृष्ठभूमि ही शृंगार के गुणधर्म का निर्णय करती है कि यह लोक साहित्य की भावना है या अभिजात साहित्य की ।
१ - - तत्थ यतईप्रो दिवसो ववहारस्स छिज्जंतस्स परिच्छेज्जं न गच्छइ, दो सवत्तीश्रो - द० हा० पृ० २१६ ।
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