Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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____२५. (३) मूलवृत्तियों का निरन्तर साहचर्य--
मनुष्य का प्रत्येक कार्य उसकी मूलवृत्तियों के द्वारा संचालित रहता है। मूल प्रथा तियां वे कहलाती है, जिनका जीवन के साथ अन्वय-व्यतिरेक रूप सम्बन्ध है। सुखदुःख, प्राशा-निराशा, काम, क्रोध, मद, लोभ, माया, मोह, एषणा प्रादि ऐसी ही प्रवृत्तियां हैं, जो सदा से अनुस्यूत चली आ रही है। हरिभद्र की प्राकृत कथानों में ऐसी चिनगारी नहीं मिलती हैं, जो एक क्षण में प्रकाश प्रदान कर शान्त हो जाय, बल्कि इनमें निहित भावनाएँ उस अंगारे के समान है, जो बहुत समय तक दहकता रहता है । प्राशय यह है कि हरिभद्र के द्वारा गृहीत घटनाएँ लम्बे समय तक चलती हैं, जिससे मूलभूत प्रवृत्तियों को अधिक समय तक अपना रूप प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है । पात्र भी विभिन्न वर्गों से ग्रहण किये गये हैं, अतः कई प्रवृत्तियों को एक काल में प्रादूर्भत होने का अवसर मिला है। जिन घटनाओं या कथानकों को हरिभद्र ने ग्रहण किया है, वे शाश्वतिक सत्य के प्रतीक है। पूरी समराइच्चकहा भाग्य और पुनर्जन्म का सिद्धान्त उपस्थित कर जीवन की व्याख्या करती है। क्रोध का दुष्परिणाम प्रथम भव की कथा उपस्थित करती है, तो द्वितीय भव की कथा मान का और तृतीय भव की कथा माया का। कषाय विकारों के विभिन्न रूप, जो आदिम मानव से लेकर अाज तक के व्यक्ति में पाये जाते हैं, उनका लोक जनीन रूप इन कथानों में उपलब्ध है। प्रसन्न या अशिक्षित व्यक्ति के विकार और सभ्य या शिक्षित व्यक्ति के विकारों में मूलतः कोई अन्तर नहीं होता । अन्तर केवल अभिव्यक्ति की पद्धति में रहता है। अभिव्यंजना की दृष्टि से हरिभद्र की कथाओं में विकारों के दोनों रूप नागरिक और ग्रामीण उपलब्ध है।
(४) लोक मंगल:--
हरिभद्र' की कथानों में प्राद्यन्त लोक मंगल की भावना विद्यमान है। हरिभद्र ने प्राणीमात्र के कल्याण के लिये इन कथाओं का नियोजन किया है । धरण के चरित्र से प्रसन्न होकर राजा उससे वरदान मांगने को कहता है । धरण निज स्वार्थ की बात न कर लोकमंगल की बात कहता है । वह राजा से याचना करता है“पयच्छउ देवो नियरज्जे सव्वसत्ताणं वन्दिमोक्खणं सव्वसत्ताणमभयप्पयाणं च" अर्थात "हे महाराज ! आप राज्य के समस्त प्राणियों को बन्धनमुक्त कर दीजिये और समस्त प्राणियों को अभय दीजिये।" प्राणियों की रक्षा, अनुकम्पा और दयालुता ही में प्राणिमात्र का कल्याण निहित है। सभी प्राणी सुखी, शान्त, स्वस्थ और कल्याण का जीवन व्यतीत कर सके, यही उद्देश्य हरिभद्र का है। श्रेष्ठ या उत्तम विचार के पात्र अपने स्वार्थ की बात नहीं करते हैं, उनकी दृष्टि में समाज या लोकहित ही निजहित है।
५ धर्मश्रद्धा--
लोक जीवन के विकास के लिये धार्मिक श्रद्धा का रहना परम पावश्यक है । धर्म एक ऐसा सम्बल है, जिससे जीवन का विकास निरन्तर होता रहता है। धर्मश्रद्धा जहां रहती है, वहां सात्विक बुद्धि का निर्माण होता है । विषय-भोगों का दरवाजा बन्द होकर आत्मविकास का अवसर मिलता जाता है। क्रिया व्यापार के साथ प्रान्तरिक भाव का मेल हो जाता है, अहंभाव का परिष्कार होकर हृदय स्वच्छ हो जाता है,
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१---स.,प० ५६५ ।
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