Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
२३६
सामरिक उत्साह, स्वाभिमान, दम्भ, रोष एवं पुरुषार्थ गुण सजग रहते हैं। हां, यह माना जा सकता है कि वह तामसिक प्रकृति है, तपस्या जैसी सुन्दर वस्तु को प्राप्त कर भी सहनशीलता का पालन नहीं करता है । साथ ही निदान बांधकर मरण करता है, जिससे मात्र सामरिक उत्साह की ही व्यंजना होती है ।
हरिभद्र ने अपनी कथा के धरातल पर यहीं से सात्विक और तामस प्रकृति वाले दोनों प्रधान पात्रों का निर्माण कर - नायक और प्रतिनायक के रूप में कथा श्रौर चरित्रों का विकास दिखलाया है। जिस प्रकार निहाई प्रभाव में गर्म लोहे पर हथौड़े की चोट नहीं पड़ सकती हैं, शिलपट्टिका के प्रभाव में उस्तरे को तीक्ष्ण नहीं किया जा सकता है, तथा ध्वनि के बिना प्रतिध्वनि का भी होना संभव नहीं है, उसी प्रकार शील का विकास नायक - प्रतिनायक के संघर्ष के बिना संभव नहीं है ।
सिहकुमार
१
राजपुत्र सिंहकुमार विचारशील युवक हैं ।
युवावस्था की देहली पर पर रखते ही उसके हृदय में प्रेमांकुर उत्पन्न होने लगता है । कुसुमावली के प्रभाव में उसे एक क्षण भी युग के समान प्रतीत होता है । कुमार की अभिरुचि चित्रकला की ओर विशेषरूप से है । वह सिंह, हाथी, चक्रवाक, मयूर प्रादि पशु-पक्षियों के बहुत ही सुन्दर चित्र तैयार करता है । उसकी तूलिका में नवीन सृष्टि सृजन की अद्भुत क्षमता है । दन्तलेख, पत्रलेख करने की कला में भी वह प्रवीण है । जब मदनलेखा हंसिनी का चित्र लेकर कुमार के पास पहुंचती है, जिस चित्र के नीचे किसी युवती की मदन विहवल अवस्था का द्योतन कराने वाला एक द्विपदी-खंड भी अंकित हैं । इस चित्र को देखते ही भावुक कुमार भाव-विभोर हो जाता है। वह नागवल्ली के पत्ते पर राजहंसिनी की अवस्था का अनुकरण करने वाले राजहंस का श्रेष्ठ चित्र अंकित करता है । मदन लेखा को वह इस चित्र के साथ त्रिलोकसारभूत मुक्तावली-हार पुरस्कार में देता है । इस प्रकार कुमार के जीवन का प्रथम पटाक्षेप एक प्रेमी, भावुक और विलासी के रूप में होता है । कुमार का यह किशोर शोल चंचल और क्रीड़ाप्रिय है । विलासी राजकुमारों की ऐसी ही आरंभिक स्थिति होती है ।
द्वितीय अवस्था के प्रारम्भ होते ही कुमार में प्रौढ़ता श्रा जाती है । साधु-सन्तों के प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न होता है । जगत और अपने सम्बन्ध को समझने की क्षमता उसमें प्रकट हो जाती हैं । विवेकी कुमार को नागदेव उद्यान में जाने पर प्राचार्य धर्मघोष दिखलायी पड़ते हैं । श्रद्धा और भक्ति से विभोर होता हुआ, वह घोड़े पर से उतर कर प्राचार्य के दर्शन करता है । दूरदर्शी राजकुमार के हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती हैं कि कामदेव के समान रूप लावण्ययुक्त इन्होंने इस अवस्था में यह वैराग्य क्यों धारण किया । विश्व में कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, अतः इस वैराग्य के पीछे कोई कारण होना चाहिए ।
विनम्र होकर कुमार श्राचार्य से प्रश्न करता है -- "भगवन् ! समस्त सम्पत्ति और गुणों से युक्त होने पर भी इस प्रकार की विरक्ति का क्या कारण है ? जिससे आपने समय में ही यह कठोर श्रमणव्रत धारण किया है ?"
उत्तर में आचार्य श्रमरगुप्त मुनि की कथा सुनाकर अपने विरक्त होने की पुष्टि करते हैं । इस कथा में जीवन के विभिन्न संघर्षों, स्वार्थी एवं नैतिक द्वन्द्वों के घातप्रतिघात दिखलाये गये हैं । कुमार के द्वारा पूछे जाने पर धर्मघोष श्राचार्य चारों गतियों का स्वरूप बतलाते हुए मधु बिन्दु दृष्टान्त का जिक्र करते हैं, जिससे कुमार बहुत प्रभावित होता है और श्रावक के व्रत स्वीकार कर लेता है ।
१-- समराइच्चकहा के द्वितीय भव का नायक ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org