Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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बालकदली गृह में जाने पर कुसु मावली के हादिक भावों से अवगत होकर मदनले खा चातुर्यपूर्वक पूछती हैं --
"स्वामिनी ! तरुण व्यक्तियों के हृदय को उद्वेलित करने वाले इस वसन्त समय में क्रीड़ा सुन्दर उद्यान को जाते हुए तुमने कुछ आश्चर्य देखा था ?"
रहस्य को बतलाने की इच्छा न होने पर भी कुसुमावली कहने लगी--
"प्रिय सखि ! क्रीडा सुन्दर उद्यान में रति रहित कामदेव के समान, रोहिणी से रहित चन्द्रमा के समान, मदिरा से रहित बलदेव के समान, इन्द्राणी रहित इन्द्र के समान . . . . लावण्य के लिये लावण्य के समान, · · · 'मनोरथों के लिए मनोरथ के समान महाराज पुत्र सिह कुमार देखा था।"
इस प्रकार सखियों के बीच वार्तालाप होता है । इस कथोपकथन से कुसुमावली को प्रेमविह्वल अवस्था का पूरा परिचय प्राप्त हो जाता है । यह मूलभूत संघर्ष से उदय होकर कार्य व्यापार को विकसित करने में अत्यधिक सहायक होता है ।
सनत्कुमार मित्रों के साथ वसन्तोत्सव के अवसर पर ताम्रलिप्ति के तिलक स्वरूप अनंग नन्दन नाम के उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए प्रस्थित हुा । राजपथ पर प्रात ही नगराधिपति ईशानचन्द्र की पुत्री विलासवती ने वातायन से उसे देखा । प्रेम विभोर हो उसने बकुलपुष्पों की माला ऊपर से ही सनत्कुमार के गले में गिरा दी। पहली नजर में ही वे दोनों प्रेम से पाहत हो चुके थे । सनत्कुमार सन्ध्या समय उद्यान से नगर में चला आया, रात्रि में उसे कोमल शय्या पर भी निद्रा नहीं पायी। हृदय में अव्यक्त वेदना होने लगी और मस्तिष्क रात्रि में कुमार का मुख श्रीहीन हो गया और वह वर्षों से अस्वस्थ रहा हो, ऐसा दिखलायी पड़ने लगा । प्रातः वसुभूति प्रभृति मित्र प्राय, ताम्बल वितरण के अनन्तर सभी मिलकर पुनः क्रीड़ार्थ उसी उद्यान में गये । कुमार के मदन विकार को अवगत कर वसुभूति कहने लगा
"मित्र ! अाज तुम दिवसचन्द्र के समान विच्छाय--कान्तिहीन क्यों दीख पड़ते हो, ध्यानावस्थित मुनि के समान क्षणभर में अखिल चेष्टानों को रोक देते हो, और इसके पश्चात् लाभोपलब्ध जुगाड़ी की तरह परितोष प्राप्त करते हो"। सनत्कुमार--"मित्र मेरी समझ में भी कुछ नहीं पा रहा है, में स्वयं अपने लिए पहेली बन गया हूं" ।
वसुभूति--"मैं आपकी बातों को जान गया हूं।'' कुमार--"अरे भई ! बतायो भी क्या जानते हो ।'
वसुभूति--"बकुलपुष्प की माला के व्याज से राजदारिका ने तुम पर गुरुतर भार दे दिया है, उसके कटाक्ष के व्याज से तुम काम बाण से विद्ध हो चुके हो। यह विकार तज्जनित ही है, अन्यथा यह तुम्हारा मख पीला क्यों पड़ जाता ? निद्रा न पाने से तुम्हारी प्रांख लाल हो रही है। अच्छा सन्ताप मत करो, वह भी तुमसे प्रेम करती है। मैने विलासवती को धात्री अनंग सुन्दरी के साथ सम्पर्क स्थापित किया है। कुछ ही दिनों में सारी बातें स्पष्ट हो जायंगी।" कुछ दिन के उपरान्त वसुभूति ने कहा--"मित्र विषाद छोड़ो, विशेष हर्ष अंगीकार करो, तुम्हारा सभी हिता सम्पन्न हो गया है।"
सनत्कुमार--" मित्र किस प्रकार ?"
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