Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
२२८
aft या शोल के संबंध में अरस्तू का अभिमत हैं कि "चारित्र्य उसे कहते हैं, जो किसी व्यक्ति की रुचि - विरुचि का प्रदर्शन करता हुआ नैतिक प्रयोजन को व्यक्त करे" "। इससे स्पष्ट है कि चरित्र ही पात्रों की भद्रता अभद्रता का द्योतन करता है । प्रो० जगदीश पाण्डेय ने शील की व्याख्या करते हुए लिखा है -- "व्यक्ति का शील आधारतः मनुष्य की हृदयावस्था का वह मानचित्र है, जिसका निर्माण एक प्रतिष्ठा नहीं, प्रतिक्षण चंचल अतिक्रम हैं । यदि ज्ञान से मनुष्य के शील का सीधा या उलटा लगाव नहीं तो कोरी शारीरिक क्रिया का भी शील से कोई अटूट या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध नहीं है । जहां हाव के पीछे भाव नहीं, वहां शील नहीं । क्रिया मात्र शील नहीं है जबतक प्रतिक्रिया न हो" । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने शील का विवेचन करते हुए लिखा है कि-- "शील हृदय की वह स्थायी स्थिति हैं, जो सदाचार की प्रेरणा आपसे प्राप करती है" । अतएव स्पष्ट है कि शील स्थापत्य के द्वारा ही मानवीय मनोवेग, भावावेश, विचार, भावना, उद्देश्य और प्रयोजन आदि का सूक्ष्म से सूक्ष्म श्राकलन सम्भव होता हैं । यतः कथा साहित्य का मूलाधार चरित्र चित्रण ही हैं । कथोपकथन घटनाओं से भी अधिक चरित्र को ही व्यंजित और प्रकाशित करते हैं । कथा की घटनाएं तो प्रायः पात्रों के स्वभाव और प्रकृति से ही प्रसूत होती हैं, पर उसके वातावरण और देशकाल का निर्माण चरित्र को महत्ता देने के लिये होता है । प्रतः कथाकृतियों में चरित्र स्थापत्य का उत्कर्ष रहना परमावश्यक है ।
३
प्राकृत कथाकार हरिभद्र का ऐसा व्यक्तित्व ही है कि उन्होंने चतुर्दिक फैले हुए व्यापक मानव जगत् को अच्छी तरह देखा और समझा है । यही कारण है कि इनकी कथात्रों में इष्ट मित्र और परिचितों के स्वरूप, वेशविन्यास, उनके सांस्कृतिक गठन, उनकी रहन-सहन, चाल-ढाल, बोल-चाल आदि का प्राकलन सर्वांगीण और प्रामाणिक रूप से हुआ है । यद्यपि कर्म - संस्कार की प्रमुखता इन्होंने मानी है, तो भी प्रदर्श और यथार्थवादी चरित्रों की कमी नहीं है । कई चरित्र तो ऐसे हैं, जो मात्र अनुरंजन ही नहीं करते हैं, बल्कि पाठक को रसदशा तक पहुंचाने में समर्थ हैं। जो कुछ जीवन में घटित होता है, हरिभद्र ने कथा के माध्यम से उसे व्यक्त कर दिया है । श्रतः सार्वदेशिक और सार्वकालिक संवेदनों को स्थान देकर इन्होंने पात्रों को जीवन्त और कर्मठ तो बनाया ही है, साथ ही चरित्रों में श्राकर्षण भी भरे हैं । चरित्रगत आकर्षक स्थलों पर पहुंचने
पूर्व ही पात्रों की विविध दशाओं का बड़ा ही बुद्धिसंगत चित्रण किया है ।
हरिभद्र ने अपनी कतिपय लघुकथाओं में चरित्रगत सौन्दर्य दर्शन वहीं स्फुट किया है, महां कथा सीमा पर पहुंचती है । कथा का मर्म-केन्द्र जिस स्थल पर विद्यमान रहता है, पात्रों का चरित्र गठन वहीं सम्पन्न होता है । समराइच्चकहा के प्रथम, पंचम, षष्ठ और अष्टम भव की कथाओं में चरित्र के प्रेरक तत्त्वों अथवा बीज भाव को बिना किसी प्रकार के विवरणात्मक और परिचयात्मक विस्तार के सीधे उपस्थित कर दिया है । यद्यपि इन भवों की कथानों में भी वर्णनों की प्रचुरता है, तो भी पात्रों की संवेदनाओं और भावनाओं का चित्रण हो ही गया है । चरित्रांकन में हरिभद्र अपने क्षेत्र के अद्वितीय हैं ।
चरित्र स्थापत्य की प्रमुख विशेषता तो हरिभद्र में यह पायी जाती है कि इन्होंने चरित्र की विशेषताओं को क्रमशः घनीभूत और प्रभावमय बनाया है । चरित्र की दौड़ satara में एक स्थान पर नहीं रहती हैं, बल्कि कथानक में प्राद्यन्त व्याप्त हैं ।
१ - डॉ० नगेन्द्र द्वारा अनुदित अरस्तू का काव्यशास्त्र, पृ० २२ ।
२ - शीलनिरूपण सिद्धांत और विनियोग, पृ० १ ।
३ - गोस्वामी तुलसीदास, प० ५६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org