Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(३) शिखिकुमार और विजय सिंह (४) पिंगक और विजय सिंह (५) धन और यशोधर' (६) जयकुमार और सनत्कुमार (७) धरण और अर्हदत्त (८) सागर और साध्वी (६) सेनकुमार और हरिषेणाचार्य' (१०) गुणचन्द्र और विजयधर्माचार्य (११) सुसंगता गणिनी : संभाषण (१२) अभयकुमार और सभासद
उपर्युक्त शृंखलाबद्ध कथोपकथन बनाम भाषण हैं। किसी पात्र के द्वारा प्रश्न किये जाने पर प्राचार्य उत्तर देते समय अपनी आत्मकथा तथा धर्मतत्व का प्रवचन करते है । प्रायः सभी संवादों में एकरूपता है, लम्बी आत्मकथाएं जिनमें उपकथा, प्रतिउपकथाओं का जमघट है। यह सत्य है कि इन संभाषणों में सिद्धान्तों का प्रभावशाली ढंग से निरूपण हुआ है । तन्वेिषण, मनोवृत्ति, प्रवचन, वाग्वं दग्ध्य, कल्पना और प्रभावक उपसंहार आदि भाषण के गुण इन संवादों में वर्तमान हैं। गुणसेन विजयसेनाचार्य से प्रश्न करता है "प्रभो ! रूप-लावण्य, धन-वैभव, ऐश-आराम आदि समस्त सांसारिक सुखों के रहने पर भी प्रापको विरक्ति का क्या कारण है ? आपके चरणों से सुशोभित सिंहासन को अपने वैभव सहित अनेक सामन्त और राजा नमस्कार करते हैं। इस संसार की सारी सुख-सुविधाएं प्रापको प्राप्त हैं। आप जैसे यशस्वी, पुण्यात्मा, ऐहिक सख सामग्री से परिपूर्ण व्यक्ति का उदासीन होकर सन्यासी बन जाना और प्रात्म साधना में लगना अकारण नहीं हो सकता है । अतः अपनी विरक्ति का कारण बतलाइये।
विजयसेन--"राजन् ! यह संसार विरक्ति-कारणों से परिपूर्ण है, फिर भी मैं आपको अपनो विरक्ति का कारण कहता हूं।"१२
१--भग० सं० स० पृ०, १६७---१८७ । २--भग० सं० सं० पृ०, २०१ । ३--वही, पृ० २८६ । ४---वही, पृ० ३६६ । ५---वही पृ० ५६६ । ६-वही, पृ० ६१० । ७--वहीं, पृ०७०६ । ८~-वही, पृ० ७८१ ।
---वही, पृ० ८२१ । १०--दश० हा०, पृ० ८१ । ११--दश० हारि०, पृ० ४६ । १२--वही,पृ०४६ ॥
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