Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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उस रोगी के सम्बन्ध में सारथी से पूछता है। इस दृश्य से उसको विरक्त देखकर नत्तक घबड़ा जाते हैं, उन्हें आशंका हो जाती है कि कहीं कुमार लौट न जाय । सारथी अनुनयविनय कर कुमार को आगे ले चलता है। कुछ दूर और जाने पर उसे एक वृद्ध सेठसेठानी दिखलायी पड़ते हैं। ये दोनों शरीर से बिल्कुल अशक्य थे, बुढ़ापे के कारण सभी उनकी उपेक्षा कर रहे थे। इस बूढ़े दम्पति के देखने से कुमार का वैराग्य और अधिक बढ़ गया। थोड़ी दूर आगे और बढ़े थे कि उन्हें एक दरिद्र पुरुष का शव दिखलायी पड़ा। लोग उसे अरथी पर रखकर दम न भूमि की ओर ले जा रहे थे। साथ में कुछ स्त्री-पुरुष करुण क्रन्दन करते हुए चल रहे थे। इस दृष्य को देखकर कुमार को और अधिक विरक्ति उत्पन्न हुई, किन्तु सारथी के अनुरोध करने पर मात्र अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए वह वसन्तोत्सव में सम्मिलित हुप्रा ।
निदानकथा में बताया है कि महात्मा बुद्ध को भी कुमारावस्था में उक्त तीनों दृश्य दिखलायी पड़े थे । बुद्ध के पिता ने भी उन्हें संसार-बन्धन में बांधने के लिए पूरा प्रयास किया था। उक्त संदर्भाश में बताया गया है : ___ "प्रथेक दिवसंबोधिसत्तो उय्यानभूमि गन्तुकामो सारथि अामन्तत्वा 'रथं योजही' ति आह । सो 'साध' ति पटिस्सुणित्वा महारहं उत्तमरथं सव्वालंकारेन अलंकरित्वा कुमुदपत्रवणे चत्तारो मंगलसिन्धवे योजत्वा बोधिसत्तस्स पटिवेदेसि ।-------एक देवपुत्तं जरा-जिण्णं खंडदन्तं फलितके संबंकं ओभग्गसरीरं दंडहत्थं पवेधमानं करवा दस्सेसं। तं बोधिसत्तो चे व सारथि च पस्सन्ति ।--पुनेक दिवसं बोधिसत्तो तथेव उमानं गच्छन्तो देवताहि निम्मित्त व्याधितं पुरिसं दिस्वा पुरिमनयने व पुच्छित्वा संविग्गहदगो नियत्तित्वा पासादं अभिकहि ।"
समराइच्चकहा के तीसरे भव में नालिकेर पादप की कथा प्रायी है । इस कथा में पृथ्वी के भीतर रखी गयी निधि का उल्लेख है। इस गड़े हुए धन के कारण नायक के प्रति प्रतिनायक के मन में सदा पाप वासना उत्पन्न होती रही है । यह कथानक नन्द जातक में भी रूपान्तरित अवस्था में उपलब्ध होता है। इस जातक में बताया गया है कि एक गृहपति मरते समय गड़ा हुआ धन छोड़ गया । नौकर जब-जब उसके लड़के को उस धन को रखने का स्थान बतलाने जाता, तब-तब उसके मन में विकृति उत्पन्न हो जाती और वह गालियां बकने लगता।
सुप्पारक जातक में व्यापारियों की सानुद्रिक यात्रा का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि बोधिसत्व भरुकच्छ में सुप्यारक नाम के ज्योष्ठ नाविक के रूप में उत्पन्न हुए । इन्होंने अनेक व्यापारियों के साथ दधिमालक, नलमालि और वलमामुख नामक समुद्र की नौकाओं द्वारा यात्रा को। यह यात्रा हरिभद्र के धन और धरण सार्थवाह को सामुद्रिक यात्रा का कल्पना बीज हो सकती है। महाजनक जातक में भी सुवर्ण भमि की यात्रा का उल्लेख है । यह यात्रा भी जलयान द्वारा की गयी थी।
१- समराइच्चकहा, पृ०८८४---८६१ २. एन० के ० भागवत द्वारा सं० निदान-कथा, पृ० ७५-७६ । ३-~जातट्ठकथा-नन्द जातक, पृ० १६१-१६२ । ४.- जातक चतुर्थ खंड-अप्पारक जातक, . ३३६----३४३ । -----वही, महाजनक जातक अ. ६, पृ० ३८-३६ ।
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