Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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का मित्र' । लेखक ने इस परिचय के द्वारा नन्दक के साथ धनश्री के प्रेम व्यापार का समर्थन किया है । स्पष्ट हैं कि लेखक न े धनश्री जैसी नारी समर्थन पूर्वभव के मधुर सम्बन्ध द्वारा किया है ।
कुकृत्यों का
परिचय प्रथुलता के कारण कथा की चेतना भारातिक्रान्त हो गयी है, पर इससे भूत कर्मों की वर्तमान में निर्मम क्रियमाणता दिखलाना ही अभीष्ट है । व्यक्ति की सत्ता कोई चीज नहीं, पूर्व सम्बन्ध असल चीज है । कथा सत्ताधारियों की नहीं, संस्कार सम्बन्धियों की है । अतएव ऐसा वातावरण, जिससे पाठक भागना चाहे, पर भाग न सके - - मुक्ति रह-रह कर लुप्त हो जाय, सुख स्वच्छन्द चेतना प्रवाह का सुख अवरुद्ध होता जाय । ऐसा भावावरण का सामंजस्य उस लोक से, जहां जीव भी कर्मों के फल से स्वतन्त्र भोग चाहता है, लेकिन श्रावर्त्त से मुक्त नहीं हो पाता । कथाकार ने बड़ी कुशलता से पाठक की चेतना को कथावस्तु में केन्द्रित किया है । परिचयों को विशाल समूह से भी पाठक शुभाचरण की प्रेरणा और शुभाचरण से विरत रहने का संकल्प कर हता है ।
२
नायक का जन्म प्रायः व्रत, देव-अभ्यर्चना या प्रसाद के रूप में होता है ? । धनयक्ष के प्रसाद के कारण जन्म होने से नायक का नाम धन रखा जाता है । माता स्वप्न में हाथी को उदर में प्रवेश करते हुए देखती है । स्वप्न फल के अनुसार धनदेव को प्रभावशाली बतलाया गया ।
यथार्थवादी यदि प्राक्षेप करें कि ऐसी घटना पुराणपन्थी या बौद्धिक सभ्यता के शैशव की हैं, तो यह कहना गलत होगा । अतः यथार्थवाद का अर्थ है अभिप्रेत भाव या अर्थ के लिये वास्तविक रूपक प्रस्तुत करना । आलोचक कलाकार को स्पष्ट दर्शन या अनुभूति नहीं कराने के लिये डांट सकता है, लेकिन यह नहीं कह सकता कि तुम्हारी लंका में अशोक तो देखा, पर गुलर कहां है ? कलाकार आलोचक की भावनाओं का प्रपन्न चित्रकार नहीं और न वह आलोचक के प्रिय विषय की सामग्री प्रस्तुत करता हँ । वह अपनी कल्पना को रमणीय बनाता है, पर अपनी कल्पना के साथ रमण नहीं करता । यही रमणीयता कलाकार का दायित्व और आलोचक से उसके सम्बन्ध का श्राधार है । अस्पष्ट दर्शन या क्षीण रमणीयता दोष है, लेकिन यह उचित नहीं । जो यह कहता है कि अमुक विषय प्रस्तुत करो, वह प्राधुनिक नहीं अधिनायक है । यहां कथाकार जन्ममरण को ग्रावर्त्त या विवशता के रूप में दिखलाकर देहाभिमान, सत्ताभिमान, योग स्वतन्त्रता या कर्त्तापन को छिन्न-भिन्न करा देना चाहता है इसी कारण जन्म की स्वतन्त्रता पर भी दं वाघात करता है ।
धनश्री अपने सुन्दर पति को छोड़कर नन्दक भृत्य के प्रति इतनी प्रासक्त हो जाती है कि उसे विष दे देती हैं, फिर उसे समुद्र में ढकेल देती हैं। ठीक इसके विपरीत harose को धन के प्रति इतनी दया हो आती हैं कि वह उसका वध नहीं कर सकता । नयनावली अपने सुन्दर पति को छोड़कर कबड़ चौकीदार के प्रति आसक्त हो जाती है और पति को विष दे देती हैं । नाम नयनावली और कूबड़ पर आसक्त, कलाकार
-वही, पृ० ४।२३८ ।
१--प्रज्जव कौण्ड्डि॰ परिचारओ २ -- वही, पृ० ४।२३५ । ३-- स० पृ० ४।२५१-२५२ । ४--स० पृ० ४।२५२ । ५ - वही, ४।२६१-२६२ । ६ -- वही, ४।३०७ ।
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