Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्रकार की सुविधाएं प्रदान करता था। इसका परिणाम यह हुआ कि शनैः शनैः जूता, विस्तर, छत्र, भोजन, स्वादिष्ट मधुर भोजन, एकाधिक बार भोजन आदि की सुविधा उसे दी गयी। इतने पर भी जब उसे संतोष न हुआ तो उसने अविरत रूप में रहने की स्वीकृति मांगी। वृद्ध ने उसे संघ से निकाल दिया और वह स्वच्छन्द बिहारी बन गया । फलतः उसे मरकर भैंसे का जन्म ग्रहण करना पड़ा। वृद्ध पिता जो कि वरीय साधु था, तप के प्रभाव से देव हुआ और उसने आकर उस भैंसे को एक गाड़ी में जोता । निरंतर गाड़ी खींचने से भैंसे को कष्ट हुआ, वह थक कर एक स्थान पर खड़ा हो गया। देव नो उसे सम्बोधित करते हुए कहा -- “भिक्षाटन, भूमिशयन, केशलुंचन, इन्द्रिय निग्रह आदि” कठिन कार्य हैं । अब भोगो विषयासक्ति का फल । इस वाक्य को सुनते ही भैंसे को जाति-स्मरण हो गया और उसने प्रत्याख्यान आरम्भ किया ।
कथा के लघु कलेवर में चरित्र का विकास सुन्दर ढंग से हुआ हूँ । युवक अपने जीवन में अनेक दैनिक समस्याओं को समेटे हुए हैं। घटनाएं चरित्र विकास में योग देती हैं। देवता का भूतल पर आना, पुनर्जन्म में भैंसे का हो जाना और देवों द्वारा भैंसे का उद्बोधन करना आदि अलौकिक बातें भी निहित हैं, जिनपर आज का पाठक विश्वास नहीं कर सकता है ।
गौतमस्वामी, वज्रस्वामी, आर्य महागिरि, सुहस्ति, भीमकुमार, नन्दिषेण, वसुदेव, सोमहर, रत्नशिख, कुरुचन्द्र एवं शंखनृपति आदि कथाओं में चरित्रों का इन्द्रधनुषी रूप उपलब्ध होता है । ये सभी चरित्र दुराचार, पाप और अन्याय से हटाकर सदाचार में प्रवृत्त करते हैं ।
नारी चरित्रों में रतिसुन्दरी, बुद्धिसुन्दरी, गुणसुन्दरी, ऋद्धिसुन्दरी, नृपपत्नी एवं देवदत्ता आदि के चरित्र बहुत ही सुन्दर आदर्शवाद उपस्थित करते हैं ।
इन चरित्र प्रधान कथाओं में कतिपय न्यूनताएं भी वर्त्तमान हैं
( १ ) उपदेशपद की कथाओं में चरित्र का सम्यक् विकास और विस्तार नहीं हुआ है ।
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(२) अधिकांश कथाओं में व्यक्तिवाचक नामों और घटनाओं के उल्लेखमात्र हैं, अतः इन्हें कथाओं के उपकरण तो कह सकते हैं, पर सुगठित कथा नहीं । (३) चरित्रों में उच्चावचता नहीं है ।
(४) पात्रों के मानसिक तनाव और घात-प्रतिघातों का भी प्रायः अभाव है ।
(५) घटनाओं में चमत्कार की कमी है ।
(६) परिवेशमंडलों का अभाव है ।
(७) कथोपकथनों में न सरसता है और न प्रभाव हो ।
. (८) धार्मिक वातावरण में लोक-कथाओं को दृष्टान्त के रूप में उपस्थित कर मनोरंजन के पर्याप्त तत्व उपस्थित किये गये हैं, किन्तु कथारस का सृजन नहीं हो पाया है ।
(९) लघु कथाओं की लघुता कहीं इतनी अधिक है, जिससे कथातत्स्व का विघटन हो गया है ।
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