Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(१०) यथार्थवादी चरित्रों का प्रायः अभाव है ।
(११) चारित्रिक द्वन्द्वों की न्यूनता है ।
भावना और वृत्ति प्रधान -- इस कोटि की कथाओं में प्रधान रूप से क्रोध, मान आदि में से किसी एक प्रमुख वृत्ति या हृदय की शुभ-अशुभ भावना का चित्रण रहता है । चरित्र, उपदेश, घटना, कार्य व्यापार आदि सभी कथा के उपकरण होनाधिक रूप में इनमें विद्यमान हैं । इस श्रेणी की निम्नलिखित कथाएं हैं
:
( १ ) साधु (द०हा०गा० ५६, पृ० ५७ ) । (२) चण्डकौशिक ( उप०गा० १४७, पृ० १३० ) । ( ३ ) श्रावकपुत्र ( उप०गा० १४८, पृ० १३२) । (४) पाखंडी ( उप०गा० २५८, पृ० १७९) । ( ५ ) मेघकुमार ( उप०गा० २६४ - २७२, पृ० १८२ ) । (६) गालव ( उप०गा० ३७८ -- ३८२, पृ २२२ ) ।
(७) तोते की पूजा ( उप० पृ०, ३९८ ) ।
(८) नरसुन्दर ( उप०गा० ९८८--९९४, पृ० ४०२ ) ।
( ९ ) वृद्धा नारी ( उप०गा० १०२० - - १०३०, पृ० ४१९ ) ।
"साधु" शीर्षक कथा में क्रोध और माया इन दो वृत्तियों पर प्रकाश डाला गया है । एक साधु ने भिक्षाचर्या के लिए चलते समय मार्ग में एक मेढ़की को मार दिया। शिष्य न निवेदन किया--"प्रभो, आपके द्वारा यह मेढ़की मर गयी है, अतः इसका प्रायश्चित्त करना चाहिए ।" साधु न े कहा--"अरे, वह तो पहले से ही मरी पड़ी थी, मैंने उसे थोड़े ही मारा है ।" सन्ध्या समय उस साधु ने मेढ़की का प्रायश्चित भी नहीं किया । शिष्य ने जब प्रायश्चित्तं की याद दिलायी तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और थूकदान उठाकर मारने दौड़ा। शिष्य तो अपने स्थान से उठकर भाग गया पर खम्भे से टकरा जाने के कारण उस साधु का मस्तक फट गया और उसकी मृत्यु हो गयी ।
क्रोधावेश से मृत्यु होने के कारण वह विषधर सर्प हुआ। इस कथा में वृत्ति चित्रण के और भी कई स्थल आये हैं । ईर्ष्या, घृणा, क्रोध और मायाचार के कारण लोगों के परिणामों में किस प्रकार का संघर्ष होता है और वे एक-दूसरे को किस प्रकार नीचा दिखलाते हैं। मनुष्य शरीर से काम करने की अपेक्षा मन से अधिक काम करता है, शरीर तो कभी विश्राम भी ग्रहण कर लेता है, पर मन निरन्तर कार्यरत रहता है । कुशल कलाकार मन की इन्हीं विभिन्न वृत्तियों और परिणतियों का अपनी कला में विश्लेषण करता है ।
" चण्डकौशिक" प्रसिद्ध कथा है । इसमें भी क्रोधवृत्ति के दुष्परिणाम का विवेचन किया गया । कथाकार ने बताया है कि कौशिक ऋषि कोधाधिक्य के कारण सर्प योनि को प्राप्त हुए । इस विषैले सांप ने उस हरे-भरे आश्रम को ही उजाड़ दिया। यात्रियों का आनाजाना बन्द हो गया। एक दिन एक योगी उस रास्ते से चला । ग्वालों ने उसे रोकने की पूरी चेष्टा की, पर वह न माना । मनुष्य की गंध पाते ही चण्डकौशिक फुफकारता हुआ निकला। उसने उनके पैर में जोर से काटा, पर योगी अविचलित थे । उनकी आंखों से स्न ेह मिश्रित तेज की किरणें निकल रही थीं। सर्पराज ने दुबारा और तिबारा भी उन्हें डंसा, पर योगी को ज्यों-का-त्यों अविचलित पाया । योगी ने मुस्कराकर कहा-" चण्डकौशिक ! अब तो सचेत हो जाओ ।" योगी के इस अमृत वाक्य ने चण्डकौशिक को सम्बुद्ध कर दिया। वह उनके चरणों में गिर पड़ा। उसका क्रोध क्षमा के रूप में परिवर्तित हो गया। जिस क्रोध ने उसकी यह दुर्गति करवा दी थी, वह क्रोध शांत हो
गया ।
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