Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(१६) श्रावक पुत्र (उप० गा० ५०६-५१०, पृ० २५३)। (१७) सुदर्शन सेठ ( उप० गा० ५२६-५३०, पृ० २५६)। (१८) आरोग्य द्विज (उप० गा० ५३६-५४०, पृ० २६६)। (१६) देवदत्त (उप० गा० १४३, पृ० १२६)। (२०) पाखंडी (उप० गा० २५८, पृ० १७६)। (२१) नन्दद्विज (उप० गा० ५३१-५३५, पृ० २६४)। (२२) सोमाहर (उप० गा० ५५०-५६७, पृ० २७२) । (२३) कुरुचन्द्र (उप० गा० ९५२-६६६, पृ० ३६३)। (२४) रत्नशिख (उप० गा० १०३१, पृ० ४२१)। (२५) शंख नृपति (उप० गा० ७३६-७६२, पृ० ३४१)। (२६) सोमिल (उप० गा० ६४०, पृ० २६७)। (२७) शरीर की दृढ़ता (उप०, पृ० ३१)। (२८) वचन की दृढ़ता (उप०, पृ० ३०६) । (२६) रति सुन्दरी (उप० गा० ६६७, पृ० ३२१)। (३०) बुद्धि सुन्दरी (उप० गा० ७०३, पृ० ३२५) । (३१) गुण सुन्दरी (उप० गा० ७१३, पृ० ३३१)। (३२) ऋद्धि सुन्दरी (उप० गा० ७०८, पृ० ३२८) । (३३) वसुदेव (उप० गा० ६०८-६६३, पृ० २६५)। (३४) नन्दिषण (उप० गा० ६३६, पृ० २६२)। (३५) नपपत्नी (उप० गा० ८६१-८६८, पृ० ३८०)।
उपर्युक्त समस्त कथाओं का विचार करना तो संभव नहीं है, पर कतिपय कथाओं के विश्लेषण के आधार पर इस कोटि की लघु कथाओं का सौन्दर्य बतलाने का प्रयास किया जायगा।
"शील-परीक्षा" में सुभद्रा के चरित्र का उदात्त रूप प्रदर्शित किया गया है। इस कथा के लघु कलेवर में कथाकार ने ऐसी मार्मिक परिस्थितियों का निर्माण किया है, जिनसे उसके चरित्र के सभी उज्ज्वल पहलू प्रकट हो गये हैं। सुभद्रा का विवाह एक बौद्ध धर्मावलम्बी परिवार में हो जाता है। पति जैन धर्म का श्रद्धानी है, पर सास-ननद प्रादि बौद्धधर्म का पालन करती हैं। सुभद्रा जैन साधुओं की भक्ति करती है, उन्हें दान प्रादि देती है, जिससे सास-ननद उससे द्वष करने लगती है। एक दिन एक जैन साध प्राहार के लिए उसके यहां पाते हैं। उनकी प्रांख में कहीं से धल गिर जाती है. जिससे साधु को अपार वेदना होती है। सुभद्रा अपनी जिह वा से उन साधु की प्रांख की धूल को निकालती है, जिससे उसके मस्तक में लगे सिन्दूर का तिलक उस साधु के माथे में लग जाता है । जब सास-ननद साधु को प्राहार ग्रहण कर घर से बाहर जाते देखती है, तो साधु के मस्तक में सिन्दूर का तिलक लगा देखकर सुभद्रा के चरित्र पर लांछन लगाती है। घर में वह दुराचारिणी घोषित हो जाती है, उसका पति भी उसकी सहायता नहीं कर पाता है। वह इस अपमानित जीवन से मृत्यु को उत्तम समझती है। उसे अपने अपमान की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी उस साधु और धर्म की निन्दा की चिन्ता है। उसके मानस में अपार द्वन्द्व है। विचार धाराओं की लहरें उत्पन्न
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