Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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और उस चेष्टा को अन्य किसी का व्यापार मानता है । परिवार के विकास के प्रति उसके हृदय में अपार विश्वास है । विषेणकुमार की योग्यता के कारण राज्य में जो भी विशृंखलताएं सम्पन्न होती हैं, वह उनके ऊपर लीपा-पोती करने की सदा चेष्टा करता है और अपने परिवार के अखण्डत्व के लिये भाई को निर्दोष मानता है । प्रथम बार जब नकुमार के ऊपर विषेण के षड्यन्त्र के कारण एकान्त में खड्ग प्रहार किया जाता है, वह अपने पुरुषार्थ के कारण अपनी प्राणरक्षा तो कर लेता है, पर गहरा घाव उसके शरीर में लग ही जाता है। घाव के अच्छा होने पर उसका पिता राज्य में महोत्सव सम्पन्न करता है । विषेणकुमार इस महोत्सव में शामिल नहीं होता । सेनकुमार की मृत्यु न होने से उसके मन में खेद हैं, अतः वह चिन्तातुर अपनी शय्या पर पड़ा भरता रहता है । सेनकुमार जाकर भाई को सान्त्वना देता है, उसे समझाता है और उत्सव में लाकर सम्मिलित कर लेता है। इस प्रकार परिवार की अखंडता का प्रयास इस कथा में आद्योपान्त विद्यमान है । परिवार के खट- मिट्ट े रस इस कथा में पूर्व प्रास्वादन उत्पन्न करते हैं । यह सत्य है कि परिवार संघटन में संस्कारों का संघर्ष ही प्रधान उपजीव्य है । परिवार के साथ व्यक्तियों के चरित्र भी अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं। एक ओर घोर-नास्तिकता, हिंसा और धोखे का जीवन है तो दूसरी ओर घोर नैतिकता, हिंसा और सत्यवादिता का ।
इस कथा की तीसरी विशेषता विश्रान्ति स्थलों की हैं । कथा फ्रंटियर मेल-सी श्रागे बढ़ती है, परं बीच-बीच में स्टेशन भी प्राते-जाते हैं । कथा के विकास मार्ग में अनेक ठहराव हैं। इन विश्रान्ति स्थलों में कथानक शैथिल्य नाम का दोष भी नहीं श्राने पाया है, पड़ाव और अनुवर्तन अप्रत्याशित रूप से कथा को गतिशील बना देते हैं । कथा चम्पानगरी के राजा श्रमरसेन' के प्रांगन से आरम्भ होती हैं । इसका पहला विश्रान्तिस्थल जो अनुवर्तन का ही द्योतक है, मुषित हार की उपकथा के रूप में प्राता हैं। मूलकथा को एक जंक्शन स्टेशन मिल जाता है । यहां चम्पा और गजपुर के धनिक परिवारों के विविध चित्र इस जंक्शन के विविध दृश्य हैं । सर्वांग सुन्दरी और बन्धुदेव के प्रेम के बीच में क्षेत्रपाल ने दीवार बनकर इस जंक्शन के सिगनल का कार्य किया हैं । कथा पुनः आगे बढ़ती हैं और देश-काल के व्यवधानों को साथ लिये हुए नायक के विवाह का मधुर प्रसंग उपस्थित कर देती हैं । सेनकुमार का विवाह शंखपुर नगर के राजा की दुहिता के साथ सम्पन्न हो जाता है । इस मनोरम मार्मिक स्थल से कथा आगे बढ़कर कौमुदी महोत्सव पर रुक जाती है । यहां पहुंचकर कथा को अप्रत्याशित अनुवर्त्तन प्राप्त होता है । कुमारसेन विषेण के अत्याचारों से ऊबकर नगर त्याग कर देता है । मार्ग में उसे अनेक प्रपत्तियाँ सहन करनी पड़ती हैं । शान्तिमती से वियोग हो जाता है, उसकी प्राप्ति के लिये कुमार प्रयास करता है । पल्लिपति के साथ उसका प्रेमभाव हो जाता है । सानुदेव सार्थवाह भी कुमार की सहायता करता है । इस प्रकार शान्तिमती को प्राप्ति में अटूट प्रयत्न करना पड़ता है । इस प्रयत्न में कथानक अनेक आवर्त्त विवर्तो को ग्रहण करता चलता है । अन्तिम विश्राम चन्द्रा ' की उपकथा और कुमार की दीक्षा के रूप में आता है । कथा नायक साथ आगे बढ़ती है और प्रतिनायक अपने प्रयास में विफल होता है ।
इस कथा में रोचकता और गत्यात्मकता लाने के लिये कथाकार ने घटना को प्रारम्भ में ही कई कथानकों के उत्तरांशों का उल्लेख किया है -- जैसे हार की चोरी का
१ – धन्नो तुमं, जेण वायस्स पुत्तोत्ति । ता करेहि रायकुमारोचियं किरियं - नीग्रो नत्र -- समीपं । - स० पृ० ७ । ६४७ ।
२- स० पृ० ७ । ६०५ । ३ - वही, ७ । ७११ ।
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