Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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शंकर की जटाओं में गंगा को धारण करना, पार्वती के साथ नित्य बिहार करना, विष्णु का सृष्टि को मुख के भीतर रख लेना, तीन कदमों में सारे विश्व को मापना, विष्णु द्वारा पृथ्वी का उठाना, ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु की नाभि से मानना और कमल नाल का उनकी नाभि में अटका रह जाना श्रादि श्रसंभव और बौद्धिक धारणाओं का कथा संकेतों द्वारा निराकरण किया है। यहां व्यंग्य प्रहार ध्वंसात्मक न होकर निर्माणात्मक हैं ।
अन्धविश्वासों का निराकरण भी इसमें किया गया है । तथ्य अन्ध विश्वास के द्योतक हैं:
( १ ) तपस्या भ्रष्ट करने के लिए अप्सरा की नियुक्ति' । (२) हाथियों के मद से नदी का प्रवाहित होना' । ( ३ ) श्रगस्त्य का सागरपान' ।
(४) अण्डे से बिच्छ, मनुष्य और गरुड़ की उत्पत्ति ।
( ५ ) पवन से हनुमान की उत्पत्ति |
(६) विभिन्न अंगों के संयोग से कार्तिकेय का जन्म |
पुराणों में अग्नि का वीर्यपान, शिव का नसर्गिक ढंग से वीर्यपतन, देवताओं के तिलतिल अंश के एकीकरण से तिलोत्तमा की उत्पत्ति, कुम्भकर्ण का छः महीने तक शयन, सूर्य का कुन्ती के साथ संभोग, कान से कर्ण की उत्पत्ति प्रभृति बातें ग्रायी हैं। धूर्ताख्यान में उक्त सभी प्रकार की बातों का निराकरण किया गया है ।
ऋषियों के जन्म और उनके कार्यों के सम्बन्ध में असंभव और असंगत कल्पनाओं की कमी नहीं हैं । गौतम, वशिष्ट, पराशर, जमदग्नि, कश्यप और अगस्त्य श्रादि ऋषियों सम्बन्ध में आयी हुई अनर्गल बातों का खंडन भी किया गया है । इस प्रकार हरिभद्र ने व्यंग्य काव्य द्वारा स्वस्थ समाज का निर्माण किया है ।
इस कथाकृति में निम्न
यह सत्य है कि सभी सम्प्रदाय के पुराणों में कुछ-न-कुछ अद्भुत और श्राश्चर्यचकित करने वाली बातें पायी जाती हैं। मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसे अपने सम्प्रदाय की बातें तो अच्छी लगती हैं और दूसरे सम्प्रदाय की बातें उसे खटकती हैं । श्रतः हरिभद्र ने भी अपने उक्त स्वभाव के कारण ही वैदिक पुराणों को प्रसंगत मान्यतात्रों का व्यंग्य द्वारा निराकरण किया है । श्रतएव इनका वैशिष्ट्य व्यंग्यशैली के काव्य रचयिता की दृष्टि से ही हैं, पौराणिक मान्यताओं का निराकरण करने की दृष्टि से नहीं । सत्यशोधक को स्व-पर का भेद-भाव छोड़कर साहित्य निर्माण का कार्य करना उपादेय होता है ।
१- धू० प्र० प्रा० गा० ५८-८१ ।
२--धू० तृ० श्रा० गा० ३१-३३ ।
३ - - धू० च० गा० २७--४५। ४ -- वही, ३६--४५ ।
५- धू० त० आ० गा०, ७०-८२ ।
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