Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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नहीं है । गुणचन्द्र विग्रहराज को परास्त करने जाता है। वानमन्तर वहां पर विग्रहराज से मिलकर गुणचन्द्र को परेशान करना चाहता है और जब अपने प्रयास में वह असफल हो जाता है तो निराश होकर अयोध्या में प्राता है । यहां प्राकर यह मिथ्या प्रचार कर देता है कि विग्रहराज ने गुणचन्द्र को युद्ध में मार दिया है । गुणचन्द्र के पिता इस मिथ्या समाचार का विश्वास नहीं करते, पर स्त्री हृदय होने से रत्नवती विश्वास कर लेती है। वह प्रात्महत्या करने को तैयार हो जाती है। महाराज मंत्रबल अपनी पुत्रवधू को आश्वासन देते है और कुमार का समाचार लाने के लिये पवनगति वाले दूत भेजते हैं। रत्नवती पांच दिनों के लिये उपवास धारण करती है, इसी बीच उसे सुसंगता नामक प्राचार्या के दर्शन होते हैं। प्राचार्य की विरक्ति की आत्मकथा सुनकर तथा मनोहरा यक्षिणी' की मायाचारिता और पूर्वकृत कर्म के फल को अवगत कर वह साहस ग्रहण करती है । पतिव्रता नारी की दृष्टि से नायिका का यह चरित्र पर्याप्त उदात्त है।
पूर्व के भवों को कथानों में स्वतंत्र रूप से नायिका के चरित्र का उद्घाटन नहीं हुमा था। हां, द्वितीय और षष्ठ भव में खलनायिका के रूप में उनके चरित्र की एक मलक अवश्य मिल जाती है । पर कथाकार ने इस कथा में नायिका के चरित्र का उदातरूप और उसके मानसिक संघर्ष के घात-प्रतिघात निरूपण कर स्वतंत्र रूप से नायिका के चरित्र का विकास दिखलाया है । इस प्रसंग में आयी हुई अवान्तर कथा भी चरित्र के उभारने में कम सहायक नहीं है ।
इस कथा की एक अन्य विशेषता यह भी है कि घटना घटित होने के पूर्व ही पात्रों के समक्ष इस प्रकार का वातावरण और परिस्थितियां उत्पन्न होती है, जिससे भावी कथा का आभास मिल जाता है । इसमें रोमान्स की योजना जिस पृष्ठ भूमि में की गयी है, वह नितान्त कलात्मक है ।
नवम भव : समरादित्य और गिरिषेण की कथा नवम् भव की कथा प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वन्द्व की कथा है । समरादित्य का जहां तक चरित्र है, वहां तक संसार निवत्ति है और गिरिषेण का जहां तक चरित्र है, संसार की प्रवृत्ति है । समरादित्य का चरित्र वह सरल रेखा है, जिस पर समाधि, ध्यान और भावना का त्रिभुज निर्मित किया गया है । गिरिषण का चरित्र वह पाषाण रेखा है, जिस पर शत्रुता, अकारण ईर्ष्या, हिंसा, प्रतिशोध और निदान को शिलाएं खचित होकर पर्वत का गुरुतर रूप प्रदान करती हैं। कथाकार ने पिछले आठ भवों में गुम्फित कथा, उप-कथा और अवान्तर कथा की जाल द्वारा कथातन्त्र को सशक्त बनाया है । इसके द्वारा चरित्र के विराट् उत्कर्ष अथवा प्रात्मतत्व के चिर अनुभूत रहस्य को प्रदर्शित किया है। कथा के नायक और प्रतिनायक राम-रावण की तरह जगच्छकट के दो विपरीत चक्र है, जो प्राशा-निराशा, विकास-हास और उत्पत्ति-प्रलय के समान शुभाशुभ कर्म शृंखलाओं के रहस्य अभिव्यंजित करते हैं। नवोन्मेषशालिनी कथा प्रतिभा ने आदर्श समाज की अपेक्षा प्रादर्श व्यक्ति के चरित्र को गढ़ा है । पिता द्वारा समरादित्य को संसार में प्रासक्त बनाये रखने का प्रयास तथा समरादित्य का संसार को छोड़ देने का प्रयास तथा इन दोनों के बीच होने वाला संघर्ष कथा को अद्वितीय बनाता है ।
१--स० १०८।८१४ । २--वही, पृ० ८।८१५ । ३--वही, पृ० ८।८२१ । ४-वही, पृ० ८ । ७५१ ।
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