Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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१५.४
को सांकेतिकता और संगीतात्मकता के सामंजस्य द्वारा एक गंभीर वातावरण की सृष्टि होती हैं, जिससे धर्म को सात्विकता अभिव्यंजित हो जाती हैं । अधिकांश व्यक्तिवाचक नाम सार्थक हैं, जिसका जिस प्रकार का चरित्र, गुण हैं, उसका वैसा ही नामकरण किया गया है । जालिनी यथार्थ में जालिम है । उसका छलकपट पूर्ण व्यवहार किसी जालिमधोखेबाज से कम नहीं है । बुद्धिसागर यथार्थ बुद्धिसागर है । बौद्धिक कार्यों में उसकी समकक्षता करने वाला कोई पात्र नहीं हैं । अतः व्यक्तिवाचक संज्ञानों के प्रयोग द्वारा लेखक ने तीन उद्देश्यों की सिद्धि की हैं
(१) नादतत्त्व या संगीत-तत्त्व का सृजन ।
(२) चारित्रिक संकेत ।
(३) अन्यापदेशिक शैली में घटनाओं की सूचना ।
धर्मकथा होने पर भी इस कथा के पात्र बिलकुल सामान्य नहीं हैं, चाहे उनमें eferra को विरल रमणीयता भले ही न मिले, पर असामान्यता भी वर्तमान है । कहीं-कहीं हास्य सरसता भी है । भूत चैतन्यवाद' का खंडन कर श्रात्मतत्त्व को सिद्धि करने वाले आचार्य का शील श्रात्मतत्त्व निरूपण को अपेक्षा अधिक प्रखर है ।
संस्कार - कृतघ्न अपवादिता -- जालिनी जंसी माता, जो गर्भकाल के दुःस्वप्नों और यातनाओं से पुत्र के प्रति हिंसा और प्रतिशोध की दीर्घ सुनिश्चित वैर की भावना रखने लगती है । या तो वह शुद्ध जीव हैं अथवा उन्मत्त हैं या माता का एक अपवादित रूप प्रतिप्राकृतिक । जालिनी अनेक दृष्टियों से कम-से-कम प्रेरणा और प्रतिभाव में raata नारी हँ । पुत्र की प्राप्ति माता की ममता, वात्सल्य और त्याग की जो परम्परित भावना है, उससे भिन्न माता की ऐसी पाशविकता और उस पाशविकता से ऐसे अव्यवसाय को दिखलाकर कथाकार ने यथार्थवाद के अतिसामान्य, बल्कि अन्तिम साहस का परिचय दिया है । कहा जा सकता है कि ऐसी माताएं अब तक साहित्य में परिचय - जीर्ण हो गयी हैं तथा यह सब निदान की श्रृंखला सिद्धि के लिये है । धर्म की महत्ता और अधर्माचरण का कटुफल दिखलाना उद्देश्य होने पर भी पुत्रघातिनी माता का अंकन उस कालखंड के लिये यह चार्वाक स्वच्छन्दिता जैसी चीज लगती है । अन्तिम अतिशयोक्ति में आघात और प्रकाश दोनों से संपन्न विद्युत् तत्त्व है । ऐसा उदाहरण जहां परम्परित श्रद्धेय आलम्बन के प्रति विचिकित्सा और रोष के भाव तो होते ही है, साथ ही प्रजित कर्मशृंखला के निरंकुश विनोद को सुनकर मनुष्य पूर्णतः निराश हो जाता है । माता के हृदय में कल्पना से मानसिक कष्टों, न कि पुत्रों के द्वारा किसी ठोस हानि या दुःख पहुँचाये जाने के कारण ऐसी हिंसा की श्राग्नयता और हिमऋतु शिला कठोरता दिखलाकर प्रारब्ध की उस उदात्त पशाचिकता का दर्शन कराया गया हैं, जो ऊपर से वज्र की तरह नहीं टूटती, भीतर के विकारों के द्वारा हमारा विनाश करती है ।
पिंगल और विजयसिंह के वाद-विवाद को श्रृंखला प्राद्योपान्त अपनी विदग्धता कं चलते कथा विचार पक्ष को तो पुष्ट, समृद्ध और तीक्ष्ण बनाती है, साथ ही निम्न बातें और भी संपन्न होती हैं :--
( १ ) अजित की कथा से जन्म-जन्मान्तर के कारण कार्य का पूर्वापर जो सिद्ध हो गया है, उसमें अभी तो आत्मा स्वयं सिद्ध-सी थी । उसे तर्क की कसौटी पर प्रतिवाद के द्वारा सिद्ध कराकर कथा को लौटा कर और मर्म के मर्म को प्रमाणित करा कर कथा की सार्थकता प्रमोघ बना दी गयी है ।
१-- न खलु एत्थ पंचभूयबइरित्तो पर लोगगामी जीवो समस्यीयइस० पृ० ३।२०१ ।
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