Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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भव का पालोकित करती हैं। प्रत्येक भव की कथा में स्वतन्त्र रूप से एक प्रकार की नवीनता और स्फूत्ति का अनुभव होता है। कथा की प्राद्यन्त गतिशील स्निग्धता और उत्कर्ष अपने में स्वतन्त्र है। अतएव प्रत्येक भव की कथा का पृथक्-पृथक् विश्लेषण करना तर्क संगत है।
प्रथम भव की कथा : गुणसेन और अग्निशर्मा
गुणसेन और अग्निशर्मा की कथा में धार्मिक कथा की प्रथित मर्यादाओं के सन्दर्भ में उदात्त चरित्र की प्रतिष्ठा की गयी है। निदान --विषय-भोग की चाह साधनासम्पन्न होने पर भी जन्म-जन्मान्तर तक कष्ट देती है। व्रताचरण करके भी जो लौकिक या पारलौकिक भोगों की आकांक्षा करता है, वह अनन्त संसार का पात्र बनता है ।
स्थल जातीय और धार्मिक साधना की जीवन प्रक्रिया को कला के प्रावरण में रख जीवन के बाहरी और भीतरी सत्यों को अवतारणा का प्रयास-विशेष इस कथा का प्रधान स्वर है । सहनशीलता और सद्भावना के बल से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । धार्मिक परिवेश के महत्वपूर्ण दायित्व के प्रति इस कथा का रूपविन्यास दो तत्वों से संघटित है। कर्म-जन्मान्तर के संस्कार और हीनत्व की भावना के कारण अपने विकारों को इतर व्यक्तियों पर प्राक्षिप्त करना । अग्निशर्मा अपने बचपन के संस्कार और उस समय में उत्पन्न हुई हीनत्व की भावना के कारण गुणसेन द्वारा पारणा के भूल जाने से क्रुद्ध हो निदान बांधता है ।
गुणसेन का व्यक्तित्व गुणात्मक गुणवृद्धि के रूप में और अग्निशर्मा का व्यक्तित्व भावात्मक या भागात्मक भागवद्धि के रूप में गतिमान और संघर्षशील है। इन दोनों व्यक्तित्वों ने कथानक की रूपरचना में ऐसी अनेक मोड़े उत्पन्न की है, जिनसे कार्य व्यापार की एकता, परिपूर्णता एवं प्रारम्भ, मध्य और अन्त की कथा योजना को अनेक रूप और सन्तुलन मिलते चलते हैं। यह कथा किसी व्यक्ति विशेष का इतिवृत्त मात्र ही नहीं है, किन्तु जीवन्त चरित्रों की सृष्टि को मानवता की ओर ले जाने वाली है। धार्मिक कथानक के चौखट में सजीव चरित्रों को फिट कर कथा को सप्राण बनाने की पूरी चेष्टा की गयी है ।
देश काल के अनुरूप पात्रों के धार्मिक और सामाजिक संस्कार घटना को प्रधान नहीं होने देते--प्रधानता प्राप्त होती है उनकी चरित्रनिष्ठा को। घटना प्रधान कथाओं में जो सहज आकस्मिकता और कार्य की अनिश्चित गतिमत्तता आ जाती है, उससे निश्चित ही यह कथा संक्रमित नहीं है--यह सभी घटनाएं कथ्य है और जीवन की एक निश्चित शैली में वे व्यक्ति के भीतर और बाहर घटित होती है। घटनाओं के द्वारा मानव प्रकृति का विश्लेषण और उसके द्वारा तत्कालीन सामन्तवर्गीय जनसमाज एवं उसकी रुचि तथा प्रवृत्तियों का प्रकटीकरण इस कथा को देशकाल की चेतना से अभिभूत करता
इसके अतिरिक्त गुणसेन के हृदय में भावनाओं का उत्थान-पतन मानव की मूल प्रकृति में न्यस्त मनोवैज्ञानिक संसार को चित्रित करता है। क्रोध, घणा आदि मौलिक आधारभूत वृत्तियों को उनकी रूपव्याप्ति और संस्थिति में रखना हरिभद्र की सूक्ष्म संवेदनात्मक पक: का परिचायक है । धार्मिक जीवन में भागीदार बनने की चेतना
?--निदानं विषयभोगाकांक्षा---सर्वा० ७ । १८, पृ० २३४ ।
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