Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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गुणसेन की वैयक्तिक नहीं, बल्कि सार्वजनीन है। भोगवाद और शारीरिक स्थूल प्रानन्दवाद का नश्वर रूप उपस्थित कर वयक्तिक वदना का साधारणोकरण कर दिय जिससे चरित्रों की वैयक्तिकता सार्वभौमिकता को प्राप्त हो गयी है ।
इस प्रथम भव की कथा में चरित्र सृष्टि, घटनाक्रम और उद्देश्य ये तीनों एक साथ घटित हो कथा प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं। अग्निशर्मा का हीनत्व भाव की अनुभूति के कारण विरक्त हो जाना और वसन्तपुर के उद्यान में तपस्वियों के बीच तापसी वृत्ति धारण कर उग्र तपश्चरण करना तथा गणसेन का राजा हो जाने के पश्चात् प्रानन्द बिहार के लिये वसन्तपुर में निर्मित विमानछन्दक नामक राजप्रासाद में जाना और वहां अग्निशर्मा को भोजन के लिये निमंत्रित करना तथा भोजन संपादन में प्राकस्मिक अन्तराय का पा जाना आदि कथासूत्र उक्त तीनों को समानरूप से गतिशील बनाते हैं।
इस कथा में दो प्रतिरोधी चरित्रों का अवास्तविक विरोधमलक अध्ययन बड़ी सुन्दरता से हुआ है । गुणसेन के चिढ़ाने से अग्निशर्मा तपस्वी बनता है, पुनः गुणसेन घटनाक्रम से अग्निशर्मा के संपर्क में आता है। अनेक बार प्राहार का निमन्त्रण देता है, परिस्थितियों से बाध्य होकर अपने संकल्प में गुणसेन असफल हो जाता है। उसके मन में अनेक प्रकार का पश्चाताप होता है, वह अपने प्रमाद को धिक्कारता है । प्रात्मग्लानि उसके मन में उत्पन्न होती है। कुलपति से जाकर क्षमा याचना करता है, पर अन्ततः अग्निशर्मा इसे अपने पूर्व अपमान के क्रम की कड़ी ही मानता है और ईष्यो, विद्वष, प्रतिशोध से तापसी जीवन को कलुषित कर गुणसेन से बदला लेने का संकल्प करता है । यहां से गुणसेन के चरित्र में प्रारोहण और अग्निशर्मा के चरित्र में अवरोहण की गति उत्पन्न हो जाती है। चरित्रों के विरोध मूलक तुलनात्मक विकास का यह अध्ययन इस कथा में अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंग से हुआ है।
चरित्र स्थापत्य का उज्ज्वल निदर्शन अग्निशर्मा का चरित्र है । यतः अग्निशर्मा का तीन बार भोजन के आमंत्रण म भोजन न मिलने पर शान्त रह जाना, उसे साधु अवश्य बनाता, वह परलोक का श्रेष्ठ अधिकारी होता, पर उसे उत्तेजित दिखलाये बिना कथा में उपचार-वक्रता नहीं पा सकती थी। कथा-विकास के लिये कुशल लेखक को उसमें प्रतिशोध की भावना का उत्पन्न करना नितान्त आवश्यक था । साधारण स्तर का मानव, जो मात्र सम्मान की प्राकांक्षा से तपस्वी बनता है, तपस्वी होने पर भी पूर्व विरोधियों के प्रति क्षोभ की भावना निहित रहती है, उसका उत्तेजित होना और प्रतिशोध के लिये संकल्प कर लेना उसके चरित्रगत गण ही माने जायेंगे ।
कथानक संघटन की दृष्टि से यह कथा सफल है। गणसेन और अग्निशर्मा की मलकथा के साथ प्राचार्य विजयसेन की अवान्तर कथा गुम्फित है। इस कथा में सोमवसु पुरोहित के पुत्र विभावसु के पूर्वभव का वर्णन किया गया है । मनुष्य अहंभाव के कारण अन्य व्यक्तियों की भर्त्सना या अपमान करने से पतित हो जाता है और उसे श्वान जैसी निन्द्य योनि को धारण करना पड़ता है। प्रवान्तर कथा का मलकथा के साथ पूर्ण सम्बन्ध हैं, साथ ही निदान तत्त्व के विश्लेषण में यह अवान्तर कथा भी सहयोग प्रदान करती है ।
रूपविधान की दृष्टि से यह कथा "बीजधर्मा" है । इस कथाबीज से एक विशाल वटवृक्ष उत्पन्न होता है और अनेक अवान्तर प्रासंगिक कथा शाखाएं निकलती हैं, जो सभी धामिक अन्तश्चेतना से प्राण तत्त्व ग्रहण करती है। विजयसेन और वसभति की कथा मूल कथा बीज की अंकुरित हुई शाखा-उप-शाखाएं ही हैं।
शैली की दृष्टि से इसे मिथ शैली की कथा कहा जा सकता है। कई स्थलों पर ऐसे सुन्दर चित्र खींचे गये हैं, जिनके आधार पर भास्कर्य कला के उत्कृष्ट नमुने
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