Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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देता है, उसी प्रकार कलाकार कुत्सित और स्वास्थ्यकर रागों का विरेचन कर रागों की शुद्धि करता है । प्राकृत कथाकारों ने विगत जन्म के कर्मों द्वारा प्राप्त रोग, शोक, दुःख, परिहास एवं हीनपर्याय का प्रत्यक्षीकरण उपस्थित कर जीवनशोधन की प्रक्रिया उपस्थित की है । इन्होंने मिथ्यात्व का वमन या विरेचन कराकर सम्यक्त्व की प्रतिष्ठा की है । उपचारकता के द्वारा कथाकारों ने निम्न उद्देश्यों की सिद्धि की है
:--
(१) कलुष, विष, पाप एवं मलिन वासनाओं का विरेचन ।
(२) नैतिक आदर्शो की प्रतिष्ठा के लिए अनैतिक आचरणों, क्रियाओंों और व्यवहारों का विरेचन ।
(३) बाह्य उत्तेजना और अन्त में उसके शमन द्वारा श्रात्मिक शुद्धि और शांति ।
( ४ ) अन्तर्वृत्तियों का सामंजस्य अथवा मन की शांति एवं परिष्कृति ।
मनोविकारों की उत्तेजना के उपरान्त उद्वेग-काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता ।
१४ । ऐतिह्य आभास - परिकल्पन -- यथार्थ में प्राकृत कथाओं में ऐतिहासिकता नहीं है, पर कथाकारों ने कथात्रों को ऐसे श्राच्छादनों से ढक दिया है, जिससे सामान्य जन को पहली दृष्टि में वे कथाएं ऐतिहासिक प्रतीत होती हैं । कथाकारों ने केवल नामों की कल्पना ही ऐतिहासिक नहीं की है, किन्तु ऐतिहासिक वातावरण में कल्पना का ऐसा सुन्दर पुट दिया है, जिससे कथाओं में श्राप्तत्व उत्पन्न हो गया है । प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति अपने ज्ञान को प्राप्त मान्यता देना चाहता है । ज्ञान के स्रोत को इतिहास का श्रावरण देकर चरितकथाओं को अर्द्ध ऐतिहासिक बना दिया गया है ।
कथाओं की प्रामाणिकता के लिए अधिकांश कथात्रों से महावीर, सुधर्मस्वामी, गौतमस्वामी या जम्बूस्वामी का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है । इस सम्बन्ध का कारण यही है कि वक्ता की प्रामाणिकता के अनुसार कथाओं को प्रामाणिक बनाया गया है । यह परम्परा दर्शन शास्त्र में मान्य है कि वक्ता के गुण या दोष के अनुसार उसकी बात में गुण या दोष माने जाते हैं । समन्तभद्र ने प्राप्तमीमांसा' में बताया है कि प्राप्त, सर्वज्ञ और वीतराग वक्ता के होने पर उनके वचनों पर विश्वास कर तत्त्वसिद्धि की जाती है, किन्तु जहां वक्ता नाप्त, अविश्वसनीय, प्रतत्त्वज्ञ और कषायकलुष होता हैं, वहां हेतु के द्वारा तत्व की सिद्धि की जाती है । प्राकृत कथाकारों ने प्रामाणिक वक्ता को ही नहीं उपस्थित किया, बल्कि स्वयं ही वीतरागी रहकर कथाओं के प्रवचनों में प्राप्तत्व उत्पन्न किया ।
प्राकृत कथाओं का यह स्थापत्य सार्वजनीन है । पात्रों की नामावली और कथानकों के स्रोत भी पुराण इतिहास एवं ऐतिहय परम्परा से लिये गये हैं । कल्पित कथाएं बहुत ही कम हैं । तिहय तथ्यों में कल्पना का रंग अवश्य चढ़ाया गया है । यहां यह ध्यातव्य है कि प्राकृत कथाकारों की दृष्टि में मनुष्य केवल अनादिकाल से चली आई कर्म परम्परानों के यन्त्रजाल का मूक अनुसरण करने वाला एक जन्तु ही नहीं है, बल्कि स्वयं भी किसी अवस्था में निर्माता और नेता है । अतः प्राकृत कथाओं में मात्र स्थापत्य को ही नवीनता नहीं हैं, किन्तु वस्तु, विचार और भावनाएं भी नूतन हैं । जिस प्रकार नदी का जल नवीन घड़े में रखने पर नवीन और सुन्दर प्रतीत होने लगता है, उसी प्रकार पुरातन तथ्यों को नवीन कलेवर में व्यक्त करने से कथाओं में पर्याप्त नवीनता आ जाती है । यही कारण
१- वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् ।
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वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् - प्राप्त० श्लो० ७८ ।
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