Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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हरिभद्र ने धर्मकथा नाम दिया है, पर आद्योपान्त लक्षण मिलाने से वह संकीर्ण कथा ठहरती है। अर्थ और काम पुरुषार्थ की अभिव्यंजना प्रायः प्रत्येक भव की कथा में हुई है। धर्मतत्त्व के साथ अर्थ और कामतस्व का सम्मिश्रण भी दूध में चीनी के समान हुआ है। वर्णनात्मक शैली का निखार संकीर्ण कथा में ही संभव है। अतः प्राकृत कथाओं में संकीर्ण या मिश्र कथा-विधा का बहुलता से प्रयोग मिलता है। चरित और आख्यानों में भी यही विधा विद्यमान है।
विषय की दृष्टि से किये गये उपर्युक्त आख्यान साहित्य के वर्गीकरण को (१) धर्मकथा, (२) नीतिकथा, (३) प्रेमाख्यान, (४) राजन तिक कथा, (५) सामाजिक कथा
और (६) लोक-कथा के रूप में रख सकते हैं। यह वर्गीकरण कथा का प्रसार करनेवाले विषय अर्थनीति, राजनीति, समाज एवं विभिन्न मनोव्यापारों से संबंध रखता है।
विषय की दृष्टि से कथाओं में विषय का उपयोग या व्यवहार दो प्रकार से किया जाता है
(१) कथा का प्रतिपाद्य विषय, (२) कथा के लिए आधार उपस्थित करने वाला विषय ।
आधुनिक कहानी साहित्य में प्रतिपाद्य विषय के अन्तर्गत घटना, कार्य, चरित्र, वातावरण और प्रभाव आदि ग्रहण किये जाते हैं। आधार उपस्थित करने वालों में इतिहास, राजनीति, समाज, रोमान्स, मनोविज्ञान और आंचलिक रीति-रिवाज आदि की गणना की जाती है। अर्थकथा, कामकथा आदि कथाओं के वर्गीकरण के साथ तुलना करने पर अवगत होगा कि उक्त वर्गीकरण में प्रतिपाद्य और आधार उपस्थित करने वाले विषय में भिन्नता नहीं रखी है। धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थ प्रतिपाद्य भी है और ये तीनों कथाविस्तार के लिए आधार भी उपस्थित करते है। यतः उक्त कथाविधाओं में वातावरण और परिस्थितियां इसी प्रकार की निर्मित की गयी है, जिससे समाज का त्रिपुरुषार्थात्मक रूप सामने उपस्थित होता है। घटना, कार्य और वातावरण भी पुरुषार्थों से भिन्न नहीं है। घटनाप्रधान में धर्म, अर्थ या प्रेम सम्बन्धी कोई घटना सामने आती है और उसका अद्भुत योजनासौष्ठव पाठक को प्रभावित करता है। आरम्भ से अन्त तक कथा की विविध घटनाएं कुतूहल की श्रृंखला में बंधकर चलती हैं और उत्तरोत्तर पाठक की जिज्ञासा को उत्तेजित करती है। जहां जाकर पाठक की जिज्ञासा शांत होती है, वहां उसके समक्ष अर्थ, प्रेम, धर्म या कोई नीति उपस्थित हो जाती है। कोई त्रिवर्गीय पुरुषार्थ की समस्या आती है, जो घटनाओं का रोचक विधान संयोगों और अतिप्राकत प्रसंगों का सहारा लिए हुए त्रिवर्गीय पुरुषार्थ का कोई एक रूप उपस्थित कर देती है। घटनाप्रधान या कार्यप्रधान कथाओं में पुरुषार्थ से भिन्न अन्य कोई तस्व नहीं मिलता है।
पुरुषार्थ के आधार पर वर्गीकृत कथाओं में उपादेयता और उपयोगिता इन दोनों तत्त्वों का रहना आवश्यक होता है। शुद्ध मनोरंजन का लक्ष्य इन कथाओं में नहीं रहता, बल्कि वे मानव की विभिन्न प्रवृत्तियों और उसकी संवेदनाओं को जाग्रत कर उसके सामने एक निश्चित आदर्श प्रस्तुत करती हैं। पाठक अमानवीय कृत्यों को निन्दनीय, अवांछनीय समझता है और जीवनोत्थान के मार्ग में अग्रसर होता है। संकीर्ण कथाओं को सबसे अधिक उपादेय इसीलिए माना गया है, कि ये पुरुषार्थों के मिभित रूप को आकर्षक रूप से रखती है।
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