Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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पर्याप्त मनोरंजक और शिक्षाप्रद हैं। संवेगिनी कथाओं में घटनाएं, परिस्थितियां, वातावरण आदि का प्रयोग चरित्र चित्रण में सहायक उपकरण के रूप में आता है। इस कोटि की कथाओं में वाहय विश्लेषण की अपेक्षा आन्तरिक विश्लेषण को महत्व दिया जाता है । मनोविकारों के विश्लेषण के सहारे चरित्र, गुण तथा व्यवहार आदि का सहज में ही निरूपण हो जाता है । इन कथाओं का आरम्भ प्रायः भूमिका या पृष्ठभूमि के साथ होता है । जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण देना और मानवीय अनुभूतियों को जगाना इन कथाओं का लक्ष्य है । घटनाओं और संयोगों की रोचकता भी इनमें रहती है। अधिकांश कथाओं के कथानक मांसल और रसमय होते हैं । इस कोटि की कथाओं में कथानक की शिथिलता भी पायी जाती है ।
निर्वादिनी कथा में सांसारिक सुख-दुख से सम्बन्ध रखने वाली ऐसी बातें तथ्यरूप में अंकित की जाती हैं जिनका प्रभाव पूर्णतया निर्वेद -- आसक्तित्याग के लिये होता है । यों तो सभी प्रकार की धर्मकथाओं का उद्देश्य आध्यात्मिक और नैतिक विकास ही है, परन्तु उक्त चारों प्रकार की धर्मकथाओं में प्रतिपादन की शैली भिन्न हैं । निवेदिनी कथा का स्वरूप निम्न प्रकार बतलाया गया है :
पावाणं कम्माणं असुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्थ य लोए, कहा उ णिव्वेयणी नाम ॥ थोपि पमायकथं कम्मं साहिज्जई जहि नियमा । पउरा सुहपरिणामं कहाइ निव्वेयणts रसो' ॥
निवेदिनी कथा पापाचरण से निवृत्त कराने के लिए कही या लिखी जाती है । यह चार प्रकार की होती हैं । इस लोक में किये गये दुष्कर्म इसी लोक में कष्ट देते हैं। चोरी, व्यभिचार या हत्या करने वाले व्यक्ति इसी लोक में कष्ट प्राप्त करते हैं, इस प्रकार की निर्वेद उत्पन्न करने वाली कथाएं प्रथम कोटि की निर्वेदिनी कहलाती हैं ।
इस भव में जो दुराचरण किया जाता है, वह भव-भवान्तर में भी कष्ट देता है । कदाचार या मिथ्याचार करने वाला व्यक्ति सर्वदा दुःख उठाता है। वर्तमान और भावी इन दोनों कालखंडों में वह स्वकृत मिथ्याचार का फल प्राप्त करता है । अतः उपर्युक्त प्रकार के फल का निरूपण करने वाली कथाएं, द्वितीय कोटि में निवेदिनी कहलाती हैं
परलोक में किये गये कर्म इस लोक में भी अपना शुभाशुभ फल देते हैं । कोढ़ी, रोगी, दरिद्री और अपांग किसी पूर्वजन्म कृत कर्म के द्वारा ही व्यक्ति होता है । अतः प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने वाली सरस कथाओं का प्रणयन करना तीसरी कोटि की निर्वेदिनी कथाएं हैं ।
चौथे प्रकार की कथाओं में परलोक में अर्जित कर्म परलोक में ही कष्टदायक होते हैं । विभिन्न प्रकार के दुखी प्राणियों का चरित्र विश्लेषण करना, सरस और हृदयग्राह य कथाओं का प्रणयन कर विरक्ति उत्पन्न करना ही इन कथाओं का लक्ष्य है। इस कथा का सम्बन्ध प्रायः कल्पना के साथ रहता है । कथाओं में रागतत्त्व और बुद्धितत्व की अपेक्षा कल्पनातत्त्व का बाहुल्य पाया जाता है । प्रायः सभी कथाओं का आरम्भ और अन्त एक-सा ही रहता है कथा का उत्कर्ष मध्य में वर्तमान रहता है । लोकतत्व की
१- दश० गा० २०१-२०२, पृ० २१९ ।
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