Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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है। कथाकार अनेक बार जीवनदर्शन, आधार और पंचाणुव्रतों का कथन करता चलता
इस स्थापत्य का एक गुण यह होता है कि सम्पूर्ण कथा विधान कार्य-कारण पद्धति पर निर्भर करता है। जन्म-जन्मान्तरों में किये गये विभिन्न प्रकार के शुभाशुभ फर्म, उनके फल और कर्मों के परिणाम स्वरूप पुनर्जन्म आदि कार्य-कारण शृंखला का कथन तर्कपूर्ण शैली में किया जाता है। सोद्देश्यता या उद्देश्योन्मुखता कथाशिल्प का वह अंग है, जो कथावस्तु को नीरस नहीं बनाती, बल्कि उसमें मनोरंजकता और जीवनशोधन की आवश्यक सामग्री उत्पन्न करती है। पात्रों के चरित्र-विकास, परिस्थिति नियोजन और घटनाओं की संगति में कोई बाधा नहीं आती। हां, इस शैली में एक दोष अवश्य है कि उद्देश्य के कारण कयाप्रवाह में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। स्वाभाविक क्रम से कथा का जैसा विकास होना चाहिए, वैसा नहीं हो पाता।
कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि कथाकार अपना पद छोड़कर जब दार्शनिक बन जाता है, तो इस स्थापत्य में कथा नीरस हो जाती है और उसका कथारस सूख जाता है। अतः लेखक को बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। कथा की सीमा को चारों ओर से सुरक्षित रखने के लिये उसे विविध मानव व्यापारों और घटनाओं का आत्मसात् करना पड़ता है, तभी वह अपनी कथा में कथा के सभी तत्वों का प्रस्फुटन कर सकता है। उद्देश्योन्मुख रहने पर भी कयाकारों ने अपनी कृतियों में शब्दों, विचारों, कार्यो, सौन्दर्य तथा राग के अनेक रूपों का संगुम्फन किया है। कुवलयमाला में गरिमामयी पदावली एवं अभिन्न वर्णनों का सामंजस्य अपूर्व भव्यता उत्पन्न करता है ।
६। अन्यापदेशिकता--कथाकार किसी बात को स्वयं न कहकर व्यंग्य या अनुमिति द्वारा उसे प्रकट करने के लिये इस स्थापत्य का उपयोग करता है। प्रायः समस्त प्राकृत कथाओं में इस स्थापत्य का बहुलता से प्रयोग पाया जाता है। इस स्थापत्य में व्यंग्य की प्रधानता रहने के कारण चमत्कार उत्पन्न करने की बड़ी भारी क्षमता रहती है। इतिवृत्तात्मक होते हुए भी कथाएं सरस और चमत्कारपूर्ण रहती हैं। कथांश के रहने पर व्यंग्य सह दय पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करता रहता है। इस शिल्प द्वारा कथा को इस ढंग से कहा या लिखा जाता है, जिससे कथा में अन्य तत्वों के रहने पर भी प्रतिपाद्य व्यंग्य समस्त कथा को चमत्कृत बना देता है। तात्पर्यार्थ के चारों ओर संकेत चक्कर काटते रहते हैं। समुद्रयात्रा में तूफान से जहाज का छिन्न-भिन्न हो जाना
और नायक या उप-नायक का किसी लकड़ी के पटरे के सहारे समुद्र पार कर जाना, एक प्रतीक है। यह प्रतीक आरम्भ में विपत्ति, पश्चात् सम्मिलन सुख की अभिव्यंजना करता है। कुवलयमाला में अपुत्री राज। दढ़वर्मा को कुमार महेन्द्र की प्राप्ति, पुत्र-प्राप्ति के लिये संकेत है। लेखक के अन्यापदेशिक स्थापत्य द्वारा राजा को पुत्र प्राप्ति का संकेत उपस्थित किया है। इसी प्रकार कुमार महेन्द्र का घोड़े द्वारा अपहरण भी उसके भावी जीवन की घटनाओं की अभिव्यंजना करता है।
समराइच्चकहा के प्रथम भव में राजा गुणसेन को अपने महल के नीचे मुर्दा निकलने से विरक्ति हो जाती है। यहां लेखक ने संकेत द्वारा ही राजा को उपदेश दिया है। संसार को असारता का अट्टहास, इन्द्रजाल के समान ऐन्द्रिय विषयों की नश्वरता एवं प्रत्येक प्राणी की अनिवार्य मृत्यु की सूचना अन्यापदे शिकता के द्वारा ही दी गई है। समराइच्चकहा में इस स्थापत्य का प्रयोग बहुलता से हुआ है।
७। राजप्रासाद स्थापत्य--प्राकृत कथाओं में राजप्रासाद के विन्यास के समान स्थापत्य का प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार राजप्रासार के शिल्प में सर्वप्रथम द्वार प्रकोष्ठ
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