Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मवनकेशरी का पराजय कर रत्नचूड तिलकसुन्दरी को पुनः प्राप्त कर लेता है। तिलकसुन्दरी अपनी शीलरक्षा का समस्त वृत्तान्त सुनाती है। समस्त सुन्दरियों के साथ कुमार रत्नचूड नन्दिपुर में तिलकसुन्दरी के माता-पिता तथा गजपुर में अपने माता-पिता से मिलता है।
. कथा के तीसरे खण्ड ये रत्नचूड मेरुपर्वत की यात्रा करता है और सुरप्रभमुनि के दर्शन कर उनका धर्मोपदेश सुनता है। मुनिराज दानधर्म की महत्ता बतलाते हुए राजश्री के पूर्वभव का वर्णन करते हैं जिससे राजश्री को जातिस्मरण हो जाता है। शील का माहात्म्य बतलाने के लिए पद्मश्री के पूर्वभव के तप गुण का माहात्म्य बतलाने के लिए राजहंसी के पूर्वभव का तथा भावना धर्म का माहात्म्य बतलाने के लिए सुरानन्दा के पूर्वभव का वर्णन करते हैं। कुमार रत्नचूड तथा उसकी सभी रानियां अपने-अपने पूर्वभव का वृत्तान्त अवगत कर विरक्त हो जाती है और कुमार देशवत स्वीकार कर लेता है। धर्म साधना के फल से कुमार अच्यु त स्वर्ग में देवपद प्राप्त करता है और वहां से च्युत हो महाविदेह से मोक्ष प्राप्त करता है।
कथा बड़ी सरस है। तिलकसुन्दरी और कुमार रत्नचूड के रागात्मक सम्बन्ध का - बड़ा ही हृदयग्राह य वर्णन किया है। कथानक को गतिशील बनाने के लिए नदी, पर्वत, वन, सरोवर, सन्ध्या, उषा आदि के रम्य रूप बड़े ही सुन्दर निरूपित है। इसमें निम्न विशेषताएं विद्यमान है:--
(१) कथानक का विकास अप्रत्याशित ढंग से हुआ है। (२) कार्य व्यापार की तीव्रता आद्योपान्त है। (३) सभी घटनाएं नायक रत्नचूड को केन्द्र मानकर घटित हुई है। (४) एक ही चित्र द्वारा अनेक भावों का चित्रण किया गया है। (५) घटना, चरित्र, वातावरण , भाव और विचारों में अन्विति है। (६) उपदेश या सिद्धान्तों का निरूपण कथानकों द्वारा ही किया गया है फलतः
कथानक मर्मस्पर्शीय हो गये हैं। (७) भाषा का प्राडम्बर, अद्भुत शब्दजाल तथा लम्बे-लम्बे वर्णन कथा के रूप
को विरूप नहीं करते। भाषा गद्य-पद्य मय है । गद्य की भाषा पद्य की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ और समस्यन्त
आख्यानमणि कोश
धर्म के विभिन्न अंगों को हृदयंगम कराने के लिए उपदेशप्रद लघु कथाओं का संकलन इस ग्रन्थ में किया गया है। इसके रचयिता नेमिचन्द्र सूरि है। प्रामदेव सरि ने (ई० ११३४) इस ग्रन्थ पर टीका लिखी है। यह टीका भी प्राकृत पद्य में है तथा मूल ग्रन्थ भी पद्यों में रचित है। टीका में यत्र-तत्र गद्य भी वर्तमान है।
इसमें ४१ अधिकार है। बुद्धिकौशल को बतलाने के लिए चतुर्विध बुद्धि वर्णन अधिकार में भरत नैमित्तिक और अभय के प्राख्यानों का वर्णन है। दान स्वरूप वर्णन अधिकार में धन , कृतपुण्य, द्रोण, शालिभद्र, चक्रधर, चन्दना, मूलदेव, और नागश्री ब्राह्मणी के आख्यान हैं। शील माहात्म्यवर्णन अधिकार में सीता, रोहिणी, सुभद्रा एवं दनयन्ती की कथा आई है। तप का महत्त्व और कष्ट-सहिष्णुता का उदाहरण प्रस्तुत करने
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