Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(४) कथानक सिखरूप में किसी एक भाव, मनःस्थिति और घटना का स्वरूप
चित्रवत उपस्थित करते हैं। चण्डचड का पाख्यान मानव स्वभाव पर प्रकाश डालता है। उपकोशा और तपस्वी के आख्यान में मानसिक द्वन्द्व पूर्णतया वर्तमान है । इन्द्रियवशवत्तित्व को छोड़ देने से ही व्यक्ति सुखशान्ति प्राप्त कर सकता है। जीवन का उद्देश्य प्रात्मशोधन के साथ
सेवा एवं परोपकार करना है। (५) प्राचीन पद्धति पर लिखे गये इन आख्यानों में मानव-जीवन सम्बन्धी गहरे
अनुभवों की चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। सभी कोटि के पात्र जीवन के गहरे अनुभवों को लिये हुए हैं। प्रादर्श और यथार्थ जीवन का
वैविध्य भी निरूपित है। (६) कतिपय प्राख्यानों में घटनाओं की सूची-मात्र है, किन्तु कुछ प्राख्यानों में
लेखक के व्यक्तित्व की छाप है। व्यसनशत जनक यवती अविश्वास वर्णनाधिकार में दत्तक दुहिता का आख्यान और इसी प्रकरण में पाया हुअा भावट्टिका का पाख्यान बहुत ही रोचक है। इन दोनों पाख्यानों में कार्य व्यापार की सष्टि सुन्दर हुई है। परी कथा के सभी तत्त्व इनमें विद्यमान हैं। लेखक ने विविध मनोभावों का गम्भीरतापूर्वक निरूपण
किया है। स्त्री स्वभाव का मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है। (७) धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक नियमों की अभिव्यंजना कथानक के
परिधान में की गयी है। वणिक, पत्री, नाविकनन्दा और गणमती के
प्राख्यानों में मानसिक तृप्ति के पर्याप्त साधन हैं। (८) भारतीय पौराणिक और लोक प्रचलित आख्यानों को जैनधर्म का परिधान
पहना कर नये रूप में उपस्थित किया गया है। (8) चरित्रों के वैविध्य के मध्य अर्ध-ऐतिहासिक तथ्यों की योजना की गयी है।
घटनाओं को रोचक और कौतूहलवर्धक बनाया गया है। 'हत्थस्थकंकणाणं कि कज्जं दप्पणेणग्रहवा' (हाथ कंगन को प्रारसी क्या) और कि छालीए मुहे कुंभंडं माइ (क्या बकरी के मुंह में कुम्हड़ा समा सकता
है ) जैसे मुहावरों के प्रयोग द्वारा रोचकता उत्पन्न की गयी है। (१०) विषय वैविध्य की दृष्टि से यह कोश प्राकृत कथाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण
है। इसमें जीवन और जगत से सम्बद्ध सभी प्रकार के तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है।
जिनदत्ताख्यान
इस कथाकृति के रचयिता प्राचार्य सुमति सूरि हैं। यह पाडिच्छय गच्छीय प्राचार्य सर्वदेव सूरि के शिष्य थे। यह सुमति सूरि दशवकालिक के टीकाकार से भिन्न हैं। ग्रन्थकर्ता के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, पर प्राप्त हुई हस्तलिखित प्रति वि० सं० १२४६ की लिखी हुई है । अतः यह निश्चित है कि इस ग्रन्थ की रचना इससे पहले हुई है।
जिनदत्ताख्यान नाम की एक अन्य कृति भी किसी अज्ञात नामा प्राचार्य की मिलती है। इसकी पुष्पिका में "संवत् ११८६ अधेह श्री चित्रकूटे लिखितयं मणिभद्रेण यतिना यतिहेतये साधव वरनागाय (स्वस्य च श्रेयकारणम् । मंगलमस्तु वाचकजनानाम्)"।
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