Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
६२
नरविक्रम चरित
इस चरित ग्रन्थ का प्रणयन गुणचन्द्र सूरि ने महावीर चरियं के अन्तर्गत ही किया है । इसमें नरविक्रम का शौर्यपूर्ण चरित वर्णित है । चरित के आदि में बताया गया है कि धा नाम की नगरी में जितशत्रु नामक राजा शासन करता था। इसकी पत्नी का नाम भद्रा था। इनके नन्दन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । कालान्तर में जितशत्रु प्रपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर प्रव्रजित हो गया । एक दिन इस नगरी में पोट्टिल नामक श्राचार्य पधारे। राजा नन्दन उनकी वन्दना के लिए गया और धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् श्राचार्य से पूछा -- भगवन्, यह नरसिंह कौन है और उसका पुत्र नरविक्रम कौन है ? वो देशों का राज्य प्राप्त कर भी यह नरविक्रम क्यों दीक्षित हुआ ? मेरे मन में उसका चरित जानने की तीव्र उत्कण्ठा है । प्राचार्य ने बताया-
कुरुक्षेत्र में श्रेष्ठ जयन्ती नाम की नगरी थी, इस नगरी का पालन पराक्रमी नरसिंह राजा करता था । इसकी पत्नी का नाम चम्पक माला था । यह प्रत्यन्त रूप- गुणवती थी । इस राजा का बुद्धिसागर नामक प्रधान मंत्री था। संसार की समस्त सुख-सामग्रियों के रहने पर भी पुत्र के प्रभाव में राजा को अत्यन्त मानसिक क्लेश रहता था । उसे अहर्निश अपने उत्तराधिकारी की चिन्ता रहती थी । अतः उसने बुद्धिसागर मंत्री से पूछा -- मन्त्रिवर, क्या श्राप जैसे प्रधान श्रमात्य के रहने पर भी मैं निस्सन्तान ही रह जाऊंगा ? भाग्य की इस विडम्बना के विपरीत क्या कोई उपाय नहीं किया जा सकता है !
बुद्धिसागर --- घोरशिव नामक एक महामन्त्रवादी रहता है । संभवतः वह मंत्रशक्ति के द्वारा पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय बतलावे । श्रतः श्रीमान् उसे राजसभा में बुलाने का कष्ट करें ।
राजा ने घोरशिव को अपने यहां बुलाया । उसने राजसभा में आकर मन्त्रशक्ति के अनेक चमत्कार दिखलाये, जिससे समस्त राजसभा आश्चर्य चकित हो गयी। राजा ने घोरशिव से कहा -- क्या मुझे पुत्र प्राप्ति भी मन्त्र साधना द्वारा हो सकती हैं ?
घोरशिव -- राजन्, मन्त्रशक्ति द्वारा असंभव कार्य भी संभव हो जाता है । श्राप कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को महाश्मशान में हुताशन का तर्पण करें। यह हुताशन प्रसन्न होने पर प्रकट हो कल्पवृक्ष के समान प्रापकी मनोकामना पूर्ण करेगा ।
कृष्णचतुर्दशी के आने पर राजा अकेला ही पुष्प, फल, धूप आदि पूजा की सामग्री लेकर घोरशिव के साथ महाश्मशान भूमि में पहुंचा। घोरशिव ने वेदी बनाकर अग्नि प्रज्वलित की और प्रांखें बन्द कर वह नासाग्र दृष्टि हो स्तम्भन विद्या का प्रयोग करने लगा। उसने राजा को दूर बैठा दिया था, पर उत्सुकतावश राजा घोरशिव के पास में चला श्राया और स्तम्भन विद्या का प्रयोग करते देखकर वह समझ गया कि यह मेरा वध करना चाहता हूँ । अतः राजा ने उसे डपट कर कहा--रे दुष्ट, तू शीघ्र सावधान हो, तेरा छल-कपट अब मेरे ऊपर नहीं चल सकता है । मैं क्षत्रिय हूं, अतः तेरे ऊपर पहले प्रहार नहीं करना चाहता हूं, तू स्वयं ही पहले मेरे ऊपर प्रहार कर ।
राजा की इन बातों को सुनकर घोरशिव का ध्यान भंग हुआ और वह कटारी लेकर राजा को मारने दौड़ा। राजा ने अपनी रक्षा की और खड्ग प्रहार द्वारा उसे मूछित कर दिया। इसी बीच श्राकाश से देवांगनात्रों ने जय-जयकार करते हुए राजा के ऊपर पुष्पवृष्टि की । राजा नरसिंह का चारों ओर जय-जयकार होने लगा। इसी समय एक देव राजा के सम्मुख उपस्थित हो कहने लगा -- राजन् श्रापने इस क्षत्रिय संहारक को छित कर बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया हैं । मैं आपसे प्रसन्न हूं। आप कोई भी वरदान मांगिये ।
राजा -- मैं श्रापके दर्शन से ही कृतार्थ हो गया । श्रापकी कृपा ही मेरे लिए वरदान है । देव- राजन्, प्रापका मनोरथ पूरा होगा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org