Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
सूरि ने सम्यक्त्व कौमुदी नामक एक अन्य ग्रन्थ भी लिखा है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में इसका रचनाकाल वि० सं० १४८७ बताया गया है। अतः रयणे सहर निवकहा का रचनाकाल १५वीं शताब्दी है।
यह जायसीकृत पद्यावत का पूर्व रूप है। इसमें पर्व दिनों में धर्म साधन करने का माहात्म्य बतलाया गया है। रत्नशेखर रत्नपुर का रहने वाला था, इसके प्रधानमन्त्री का नाम मतिसागर था। राजा वसन्त बिहार के समय किन्नर दम्पति के वार्तालाप में रत्नवती की प्रशंसा सुनता है और उसे प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो जाता है। मतिसागर जोगिनी का रूप धारण कर सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नवती के पास पहुंचता है। रत्नवती अपनी वर-प्राप्ति के सम्बन्ध में प्रश्न करती है और जोगिनी वेष में मन्त्री उत्तर देता है कि जो कामदेव के मन्दिर में द्यूत क्रीड़ा करता हुआ वहां तुम्हारे प्रवेश को रोकेगा, वही तुम्हारा वर होगा।
मन्त्री लौटकर राजा को समाचार सुनाता है, राजा रत्नशखर सिंहलद्वीप को प्रस्थान कर देता है और वहां कामदेव के मन्दिर में पहुंचकर मन्त्री के साथ द्यूत क्रीड़ा करने लगता है। रत्नवती भी अपनी सखियों के साथ कामदेव की पूजा करने को प्राती है। यहां रत्नवती और राजा का साक्षात्कार होता है और दोनों का विवाह हो जाता है। पर्व के दिनों में राजा अपने शीलवत का पालन करता है, जिससे उसके लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं।
समीक्षा
यह सुन्दर प्रेम कथा है। प्रेमिका की प्राप्ति के लिए रत्नशेखर की ओर से प्रथम प्रयास किया जाता है। अतः प्रेम-पद्धति पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है। लेखक ने प्रेम के मौलिक और सार्वभौमिक रूप का विविध अधिकरणों में ढालकर निरूपण किया है। इसमें केवल मानव प्रेम का ही विश्लेषण नहीं किया गया है, अपितु पशु-पक्षियों के दाम्पत्य प्रेम का भी सुन्दर विवेचन हुआ है । रत्नवती और रत्नशेखर के निश्चल , एकनिष्ठ और सात्विक प्रेम का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन्द्रियों के व्यापारों और वासनात्मक प्रवृत्तियों के विश्लेषण द्वारा लेखक पाठकों के हृदय में आनन्द का विकास करता हुआ विषयवासना के पंक से निकालकर उन्मुक्त भाव क्षेत्र में ले गया है। राग का उदात्तीकरण विराग के रूप में हुआ है। पाशविक वासना परिष्कृत हो आध्यात्मिक रूप को प्राप्त हुई है। अस्वस्थ और अमर्यादित स्थूल भोगलिप्सा को दूर कर वृत्तियों का स्वस्थ और संयमित रूप प्रदर्शित किया गया है। लेखक की दृष्टि में काम तो केवल बाह्य वस्तु है, पर प्रेम जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों से उत्पन्न होता है। यह सुपरिपक्व और रसपेशल है, इसकी अपूर्व मिठास जीवन में अक्षय आनन्द का संचार करती है। रत्नशेखर प्रेमी होने के साथ संयमी भी है। पर्व के दिनों में संभोग के लिए की गयी अपनी प्रेमिका की याचना को ठुकरा देता है, और वह कलिंग नृपति को उसकी तुच्छता का दण्ड भी नहीं देता। पर पर्व समाप्त होते ही विजयलक्ष्मी उसीका वरण करती है।
इसमें एक उपन्यास के समस्त तत्त्व और गुण वर्तमान हैं। कथावस्तु, पात्र तथा चरित्र चित्रण, संवाद, वातावरण और उद्देश्य की दृष्टि से यह कृति सफल है। घटनाओं और पात्रों के अनुसार वातावरण तथा परिस्थितियों का निर्माण सुन्दर रूप में किया गया है। निर्मित वातावरण में घटनाओं के चमत्कारपूर्ण संयोजन द्वारा प्रभाव को प्रेषणीय बनाया गया है। सभी तत्त्वों के सामंजस्य ने कथा के शिल्प विधान को पर्याप्त गतिशील बनाया है। मलकथा के साथ प्रासंगिक कथाओं का एक तांता लगा हुआ है।
७...२२ ए.
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org