Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्रस्तुत होता है । सन्तान न होने से नरसिंह के मानसिक मन्थन का भी अवसर कथा में पाया है। वह अपने स्वतन्त्र चिन्तन या स्वतन्त्र निर्णय का उपयोग करता है। उसकी सूम-बूझ उसके चरित्र को ऊंचा उठा देती है।
कुमार के निर्वाचन से मंत्री असन्तुष्ट होकर राजा से पूछता है-- तिलतुसमित्तंपिहु नियपोयणं अम्ह साहिउं देवो। पुज्विं करिसु इण्हिं पव्वयमेत्ते वि नो पुट्ठ।। पृ० ६७
महाराज, पहले प्राप तिल-तुष मात्र जरा-जरा सी बात के लिए पूछते थे, पर इस समय आपने पर्वत के समान बड़ा कार्य करने पर भी मुझसे नहीं पूछा। एक दुष्ट नरसंहारक हाथी के लिए आपने अपने प्राणप्रिय पुत्र को निर्वासित कर दिया। कुमार ने तो स्त्री और बच्चों की रक्षा के लिए हाथी का वध किया है, पर माता-पिता तो बच्चों की दुष्ट चेष्टानों --नटखट लीलाओं को देखकर भी संतोष करते हैं। यहां "नयडिभ दुट्ट चेट्टावि जण इ जणयस्स संतोसं" में पितृवात्सल्य का सुन्दर विश्लेषण हुआ है। इसी प्रकार "अवच्चनहो जो गरुओं" में उक्त वात्सल्य की पुष्टि होती है।
इस कथा ग्रन्थ के वर्णन बहुत ही सरस हैं। श्मशान भूमि का कितना साकार वर्णन प्रस्तुत किया गया है।
निलोणविज्जसाहगं पढपूयवाहगं, करोडिकोडि संकडं, रडंधूयकक्कडं । सिवासहस्ससंकुलं मिलंत जोगिणीकुलं पभूयभूयभीसणं, कुसत्तसत्तनासणं ॥ पघुट्टदुट्ठसावयं जलंततिव्यपावयं, भमंतडाइणीगणं पवित्तमंसमग्गणं ॥
कहकहकहट्ट हासोवलक्खगुरुक्खलक्खदुपेच्छं। अइरुक्खरुक्ख संबद्धगिद्धपारद्धघोररवं॥ उत्तालतालसद्द म्भिलंत वेयालविहियहलबोलं। कोलावणं व विहिणिा विणिम्मियं जमनरिवस्स ॥
--पृ० १७-१८
वीर और वीभत्स रस का बहुत ही सुन्दर निरूपण हुआ है। घटनाओं का आरोहअवरोह रसात्मक वर्णन पूर्वक ही दिखलाया गया है।
भाषा प्रौढ़ है। गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। गद्य में दण्डी की शैली का आभास मिलता है। लम्बे-लम्बे समास और विराट वाक्यों के गुम्फन में अलंकारों की छटा स्वयंमे
हावार चरिये के चतुर्थ प्रस्ताव के रूप में यह कृति अपनी विशालता के कारण ही यहां विवेचित की गयी है।
हा
सिरिवालकहा
इस कथा ग्रन्थ के संकलिता वहद् गच्छीय वजसेन सूरि के प्रशिष्य और हेमतिलक सूरि के शिष्य रत्नशेखर सूरि है। ग्रन्थ के अन्त में सन्नद्ध प्रशस्ति में बताया गया है कि वि० सं० १४२८ में रत्नशेखर सूरि ने इसका संकलन किया और उनके शिष्य हेमचन्द्र साध ने इसे लिपिबद्ध किया।
१--सिरिवज्जसेणगणहरपट्टपहहेमतिलयसूरीणं । सीसेहिं रयणसेहरसूरीहि इमाहु संकलिया।
--घउदस अनीसो लिहिया-॥
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