Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सिरिपासनाह चरियं
गण
प्राकृत कथा साहित्य के रचयिताओं में देवभद्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है । सूरि पद प्राप्त करने के पहले इनका नाम गुणचन्द्र था। इनके द्वारा रचित तीन कथाग्रन्थ उपलब्ध है-महावीर चरियं, पासनाह चरियं और कहारयण कोस। महावीर चरियं की रचना
द्र के नाम से की गयी है। कथारत्न कोश की प्रशस्ति में बताया गया है कि चन्द्रकुल में वर्धमान सूरि हुए। इनके दो शिष्य थे--जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि। जिनेश्वर सूरि के शिष्य अभयदेव सूरि और इनके शिष्य सर्वशास्त्र प्रवीण प्रसन्नचन्द्र हुए। प्रसन्नचन्द्र के शिष्य सुमतिवाचक और इनके शिष्य देवभद्र सूरि हुए। इन्होंने गोवर्द्धन श्रेष्ठि के वंशज वीर घोष्ठि के पुत्र यशदेव श्रेष्ठि की प्रेरणा से इस चरित ग्रन्थ की रचना वि० सं० ११६८ में की है।
इस चरित ग्रन्थ के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ स्वामी को भवावलि वणित है। पार्श्वनाथ के साथ कमठ की पूर्वजन्मों की शत्रुता तथा उसके द्वारा किये गये उपसर्गों का जीवन्त चित्रण है। पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी के अश्वसेन राजा और वामादेवी रानी के पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करते हैं। महाराज अश्वसेन बड़े धूमधाम से पुत्र जन्मोत्सव सम्पन्न करते हैं। बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा जाता है। पार्श्वकुमार के वयस्क होने पर कुशस्थल से प्रसेनजित राजा के मंत्री का पुत्र प्राता है। पावकुमार उसके साथ कुशस्थल पहुंचते हैं। कलिंगादि राजा जो पहले विरोध कर रहे थे, वे सभी पार्श्वकुमार के सेवक हो जाते हैं।
पावकुमार के वाराणसी लौट आने पर वे एक दिन वनविहार करते हुए एक तपस्वी के पास जाते हैं और वहां अधजले काष्ठ से सर्प निकलवाते हैं। इस सर्प-युगल को पंचनमस्कार मंत्र देते हैं, जिससे वे दोनों धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में जन्म ग्रहण करते हैं।
वसन्त के समय पार्श्वकुमार लोगों के अनुरोध से वनविहार के लिए जाते है और वहां भित्ति पर नेमिजिनका चित्र देखकर विरक्त हो जाते हैं । लौकान्तिक देव पाकर उनसे प्रार्थना करते हैं। पार्वकुमार माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगते है, पर पिता अनुमति नहीं देना चाहते । उनके प्रस्ताव को सुनकर वे शोकाभिभूत हो जाते हैं। पार्श्वकुमार उनको समझाते हैं। माता-पिता से स्वीकृति लेकर वे तीन सौ राजकुमारों के साथ दीक्षा धारण कर लेते हैं। पारणा के लिए धनश्रेष्ठि के घर गमन करते हैं। अनन्तर वे अंगदेश को विहार कर जाते हैं। कलि पर्वत पर पाश्र्व प्रभु को देखकर हाथी को जाति स्मरण हो जाता है और वह सरोवर से कमल लेकर प्रभु की पूजा करता है। कमठ का जीव मेघमाली नाना प्रकार का उपसर्ग देता है। धरणेन्द्र और पद्मावती आकर उपसर्ग का निवारण करते है। प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् के समवशरण में अश्वसेन राजा सपरिवार जाता है। महारानी प्रभावती भगवान्
ना सनकर दीक्षित हो जाती है। भगवान के दस गणधर नियत होते हैं। यहां इन सभी गणधरों के पूर्वजन्मों के वृत्तान्त दिये गये हैं।
इसके पश्चात् पाश्र्वप्रभु का समवशरण मथुरा नगरी में पहुंचता है। अनेक राजकुमार भगवान् के सम्मुख दीक्षा धारण करते हैं। मथुरा से भगवान् का समवशरण काशी मादि नगरियों में जाता है। सम्मेवलि पर भगवान का निर्वाण हो जाता है।
१--कथा० २० को० प्र० पृ० ८।
२--वीरसुएण य जसदेवसेटिणा--पा० च ० पृ० ५०३ ६--२२ एडु०।
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