Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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पांचवें अध्ययन में थावच्च कुमार, शुकमुनि और संलग राजर्षि के कथानक हैं । विशुद्ध उपदेश की योजना करना ही इनका लक्ष्य है । (प्रश्नोत्तर और प्रवचन शैली के उपयोग द्वारा कथानकों में कौतूहल संवर्धन करने की पूरी चेष्टा की गयी है ।
सातवें अध्ययन में धन्ना और उसकी पतोहुओं की सुन्दर लोक-कथा प्रायी हैं इस कथा में बुद्धिकौशल की परीक्षा का चित्रण है श्वसुर अपनी चारों पुत्रबधुत्रों को धान के पांच-पांच दाने देता है । सबसे बड़ी पतोहू उज्झिका उन दानों को निरर्थक समझ कर फेंक देती हैं, दूसरी पतोहू भोगवती उनका छिलका उतार कर खा जाती है, तीसरी पतोहू रक्षिका उन्हें सुरक्षित रूप से रख देती हैं और चौथी पतोहू रोहिणी उन धानों को क्यारियों में बोकर सैकड़ों घड़े धान उत्पन्न करती है । श्वसुर पुनः उन बधुनों को एकत्र कर अपने दिये हुए धान के दानों की मांग करता है । वह रोहिणी से बहुत प्रसन्न होता है और उसी को घर की स्वामिनी बना देता है ।
इस प्रतीक कथा में प्रतीकों का उद्घाटन करते हुए बताया गया है कि चार पुत्रबधुएं मनि हैं, धान के पांच दाने पंचाणुव्रत हैं । कुछ उनका पालन करते हैं, कुछ उनका तिरस्कार करते हैं और कुछ ऐसे मुनि हैं, जो मात्र उनका पालन ही नहीं करते, बल्कि दूसरों के कल्याण के लिए उनका प्रचार करते हैं ।
( आठवें अध्ययन में मल्लिकुमारी की कथा है । यह कथा समस्यामूलक, घटना प्रधान और नाटकीय तत्त्व से युक्त हैं। इसमें कथारस की सुन्दर योजना हुई है । इस कथा में उल्लिखित कई पात्र सांसारिक ऐश्वर्य के बीच रहते हुए भी भोगों से विरक्त हैं ।) वास्तव में इस कथा में छः कथानों को एक रूप दिया गया है और इस एकत्व द्वारा रागभाव का उदात्तीकरण उपस्थित किया गया है ।
महाबल का दुर्धर तपश्चरण तथा उसमें तनिक कपटाचरण उसके स्त्रीतीई कर बन्ध का कारण होता है । यह कथा बहुत रोचक है । यहां संक्षिप्त कथावस्तु दी जाती है ।
मिथिला के राजा की एक अद्भुत सुन्दर कन्या थी, जिसका नाम मल्लि था । छः राजकुमार अनेक साधनों से -- चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन, गुण श्रवण श्रादि से --- उसके सौंन्दर्य पर मोहित हो जाते हैं । व मिथिला पहुचते हैं, लेकिन वे मिथिला नरेश को पसन्द नहीं श्राते । वे मिलकर राजा पर आक्रमण कर देते हैं, मल्लि अपने पिता को सलाह देती हैं कि उन्हें एक-एक कर मेरे पास भेजिये । वह एक मोहनगृह तैयार करवाती है । उसमें अपनी प्रतिमा - मूर्ति बनवाकर रखती है, जिसके सिर पर सुराख रखा जाता
1 उस सूराख में वह प्रतिदिन अपनी जूठन छोड़ती रहती हैं और सुराख का मुंह कमल के पुष्प से ढक देती है । एक-एक करके राजकुमार आते हैं । जब वे प्रतिमूत्ति के सौन्दर्य का पान करते प्रघाते नहीं दिखते तो वह स्वयं सामने आकर सूराख खोल देती है । सांग से वे नाक-भौंह चढ़ाते हैं, तो वह कहती है--" इमे या रूबे प्रसुभे पोग्गले परिणामे इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खे लासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्त सुक्कसवस्स सोणियप्रयासवस्स दुसयऊसासनीसासस्स दुहयमुत्तपूइयपुरीसपुण्णस्स सडण जाव धम्मस्स केरिसए य परिणाम भविस्सइ "
सुन्दर मूर्ति के भीतर न जाने क्या-क्या गंदगी पड़ी रहती हैं । इस प्रदारिक शरीर से निरन्तर मल, मूत्र, थूक, खखार, रक्त, पीव प्रादि प्रशुचि पदार्थ निकलते रहते हैं । अतः गंदगी की खान इस शरीर से कौन ममता करेगा । राजकुमारी ने अपने पूर्वजन्मों की कथाएं भी उन्हें सुनायों और संन्यास लेने का निश्चय भी व्यक्त किया । वे राजकुमार भी मुनि हो गये ।
१ – ए० वी० वैद्य द्वारा सम्पादित नायाधम्मकहाओ, पृ० ११४, अनुच्छेद ८० ।
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