Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अर्थात--जिस स्त्री के अनुरूप गुण और अनुरूप यौवन वाला पुरुष नहीं है, उसके जीवित रहने से क्या लाभ ? उसे तो मृतक ही समझना चाहिये । सुन्दरी ने उत्तर दिया--
परि जिउ न याणइ लांच्छ पत्तं पि पुण्णपरिहीणो । विक्कमरसा हु पुरिसा भुंजंति परेसु लच्छीओ ॥
वही, पृष्ठ ४८ पुण्यहीन व्यक्ति लक्ष्मी का उपभोग करना नहीं जानता । साहसी पुरुष ही पराई लक्ष्मी का उपभोग कर सकता है ।
राजकुमार तोसली सुन्दरी का अभिप्राय समझ गया । वह एक दिन रात्रि के समय गवाक्ष में से चढ़कर उसके भवन में पहुँचा और उसने पीछे से आकर उस सुन्दरी की प्रांखें बन्द कर ली। सुन्दरी ने कहा--
मम हिययं हरिऊणं गोसि रे कि न जणिों तं सि । सच्चं अच्छिनिमीलण मिसेण अंधारयं कुणसि ॥ ता बाहुलयापासं दलामि कंठम्मि अज्ज निभंतं । सुमरसु य इट्ठदेवं पयडसु पुरिसतणं अहवा ॥
क० कोष पृष्ठ ४८ क्या नहीं जानता कि तू मेरे हृदय को चुराकर ले गया है और अब मेरी अांखें मींचने के बहाने तू सचमुच अंधेरा कर रहा है। आज मैं अपने बाहुपाश को तेरे कंठ में डाल रही हूँ। तू अपने इष्टदेव का स्मरण कर या फिर अपने पुरुषार्थ का
प्रदर्शन कर।
सुन्दरी और कुगार तोसली बहुत दिनों तक आनन्दोपभोग करने के उपरान्त वे दोनों वहां से दूसरे नगर में चले गये और पति-पत्नी के रूप में दोनों रहने लगे। ये दोनों दम्पत्ति दानी, मन्दकषायी और धर्मात्मा थे । इन्होंने भक्तिभावपूर्वक मुनियों को माहारदान दिया, जिससे पुण्य प्रभाव के कारण ये दोनों जीव सिंहकुमार और सुकुमालिका के रूप में उत्पन्न हए हैं। ___ इस कथाकोष की अन्य कथाएं भी रोचक है। शालिभद्र को कथा में श्रेष्ठी वैभव का बड़ा ही सुन्दर वर्णन पाया है । अन्य कथानों में भी वस्तु चित्रण के अतिरिक्त मानवीय भावनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण पाया जाता है । मूल कथावस्तु के अाकर्षक वर्णनों के साथ प्रासंगि: वर्णनों का आलेखन सजीव और प्रभावोत्पादक है । तत्कालीन सामाजिक नीति-रीति, प्राचार-व्यवहार, जन-स्वभाव, राजतंत्र एवं आर्थिक तथा धार्मिक संगठनों का सुन्दर चित्रण हुआ है । कर्म के त्रिकालावाधित नियम को सर्वव्यापकता एवं सर्वानुमेयता सिद्ध करने की दृष्टि से सभी कथाएं लिखी गयी हैं। प्रत्येक प्राणी के वर्तमान जन्म की घटनाओं का कारण उसके पहले के जन्म का कृत्य है। इस प्रकार प्राणियों की जन्म परम्परा और उनके सुख-दुःखादि अनभवों का कार्यकारण भाव बतलाना तथा उनसे छ टकारा पाने के लिए व्रताचरण का पालन करना ही इन कथाओं का लक्ष्य है।
इस कथाकोष की कथाएं प्राकृत गद्य में लिखी गयी है । प्रसंगवश प्राकृत पद्यों के साथ संस्कृत और अपभ्रंश के पद्य भी मिलते हैं। कथाओं की भाषा सरल और सुबोध है । व्यर्थ का शब्दाडम्बर और लम्बे-लम्ब समासों का अभाव है। ___ कथागठन की शैली प्राचीन परम्परा के अनुसार ही है । कथातंत्र भी कर्म संस्कारों के ताने-बाने से बुना गया है । कथानकों को मोड़ें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । लेखक
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