Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
के समहों में नये प्रकार के संगठन किये। चैत्यों की संपत्ति और संरक्षण के अधिकारी बने शिथिलाचारी यतिओं को प्राचार प्रवण और भ्रमणशील बनाया। इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि ११वीं शताब्दी के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के यतियों में नवीन स्फूति और नई चेतना उत्पन्न करने का कार्य प्रमुख रूप से जिनेश्वर सूरि ने किया है। जिनदत्त सूरि ने सुगुरुपारतंत्र्यस्तवं में जिनेश्वर सूरि के सम्बन्ध में तीन गायाएं लिखी है।
पुरो दुल्लहमहिवल्लहस्स अवहिल्लवाडए पपडं । मुक्का वियारिऊगं सोहेणा दलिगिगया ॥
सुगु पारतंत्र्यस्तव गा० १० स्पष्ट है कि गुजरात के अहिलवाड के राजा दुर्लभ राज को सभा में नामधारी प्राचार्यों के साथ जिनेश्वर सूरि ने वाद-विवाद कर, उनका पराजय किया और वहां वसतिवास की स्थापना की।
जिनेश्वर सूरि के भाई का नाम बुद्धिसागर था। ये मध्यदेश के निवासी और जाति के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम कृष्ण था। उन दोनों भाइयों के मूल नाम क्रमशः श्रीधर और श्रीपति थे। ये दोनों भाई बड़े प्रतिभाशाली और विद्वान् थे। ये धारा नगरी के सेठ लक्ष्मीपति की प्रेरणा से वर्द्धमान सूरि के शिष्य हुए थे। दीक्षा के उपरान्त श्रीधर का नाम जिनेश्वर सूरि और श्रीपति का नाम बुद्धिसागर रखा गया। जिनेश्वर सूरि ने जैनधर्म का खूब प्रचार और प्रसार किया। इनके द्वारा रचित निम्न पांच ग्रंथ है:-- (१) प्रमालक्ष्म, (२) निर्वाण लीलावती कथा, (३) षट्स्थानक प्रकरण, (४)
__ पंलिंगी प्रकरण और (५) कथाकोष प्रकरण । प्रस्तुत ग्रंथ कथाकोष प्रकरण की रचना वि० सं० ११०८, मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, रविवार को समाप्त हुई है । अपने गुरु वर्द्धमान सूरि का उल्लेख भी इस ग्रंय के अन्त में किया है ।
परिचय और समीक्षा
इस ग्रंथ में मूल ३० थाएं हैं। इन गाथाओं में जिन कयात्रों का नाम निर्दिष्ट है, उनका विस्तार वृत्ति में किया गया है । वृत्ति में मुख्य कथाएं ३६ और अवान्तर कथाएं ४-५ है। इन कथाओं में बहुत-सी कथाएं पुराने ग्रंथों में भी मिलती है, पर इतनी बात अवश्य है कि वे कथाएं नई शैली में नये ढंग से लिखी गयी हैं। इस कृति में कुछ कल्पित कथाएं भी पायी जाती है । लेखक ने स्वयं कहा है--
जिणसमयपसिद्धाई पायं चरियाई हंदि एयाई । भवियाणणुग्गहट्ठा काइँ वि परिकप्पियाई पि ॥
क० को० गा० २६, पृष्ठ १७६ ।
१-देखें-कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना, पृ० १६ । २-विक्कमनिवकालानो----दिवसे परिसमत्तं।
प्रशस्ति गाथा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org