Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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हाथ में पाम्रमंजरी लेकर आया और उसने वासत्र मंत्री को सूचित किया कि वसन्त का प्रागमन हो गया है । उद्यान में एक प्राचार्य भी अपने शिष्यों सहित पधारे है। मंत्री ने उद्यानपाल को पचास हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर कहा--तुम अभी प्राचार्य के पधारने की बात को गप्त रखो, जिससे वसन्तोत्सव सम्पन्न हो सके।
राजा ने उद्यान में जाकर धर्मानन्द प्राचार्य का शिष्यों सहित दर्शन किया । राजा ने मनिराज से उनकी विरक्ति का कारण पूछा । मनिराज ने संसार दःखों का वर्णन करते हुए क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के कारण संसार परिभ्रमण करने वाले चण्डसोम, मानभट, मायादित्य, लोभदेव और मोहदत के जन्म-जन्मान्तरों के प्राख्यान निरूपित किये। मुनिराज ने बताया कि प्रव्रज्या ग्रहण कर इन पांचों ने संयम का पालन किया। वहां से मरण कर ये सौधर्म कल्प में उत्पन्न हुए । इन्होंने वहां पर प्रापस में एक दूसरे को सम्बोधित करने की प्रतिज्ञा की थी। इस समय इन वणिक पुत्र, दूसरा राजपुत्र, तीसरा सिंह, चौथा कुवलयमाला और पांचवां कुवलयचन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ है। - कुवलयमाला का नाम सुनते ही कुमार ने मुनिराज से पूछा--प्रभो ! यह कौन है ? और इसे किस प्रकार सम्बोधित किया जायगा ?
मनिराज ने बताया--दक्षिणापथ में विजया नाम की नगरी है। इसमें विजयसेन नाम का राजा राज्य करता है । इसको भार्ग का नाम भानुमती है। बहुत दिनों के उपरान्त इसको कुवलयमाला नामकी पुत्री उत्पन्न हुई है। यह कन्या समस्त पुरुषों से विद्वेष करती है. किसी पुरुष का मुंह भी नहीं देखना चाहती। इसके वयस्क होने पर राजा ने एक मुनिराज से इसके विवाह के सम्बन्ध में पूछा--मुनिराज ने बताया कि इसका विवाह विनीता--अयोध्या नगरी के राजा द वर्मा के पुत्र कुवलयचन्द्र के साथ होगा। वह स्वयं ही यहां आयेगा और समस्या पूत्ति द्वारा कुमारी का अनुरंजन करेगा ।
मुनिराज ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा--तुम्हारे घोड़े को भी यहां तुम्हें सम्बोधित करने के लिए लाया गया है और मायावी ढंग से उसे मृत दिखलाया गया है।
क्षण को मार विजया नगरी का चल जाओ। कुमार कुवलयचन्द्र वहां पहुंचा और समस्या पूति द्वारा कुमारी को अनुरक्त किया । इधर कुमार महेन्द्र भी कुवलयचन्द्र की तलाश करता हुआ वहां पहुंचा और उसने कुवलयचन्द्र का परिचय राजा को दिया। विवाह होने के उपरान्त पति-पत्नी बहुत समय तक प्रानन्दपूर्वक मनोविनोद करते रहे। अन्त में वे आत्मकल्याण में प्रवृत्त हुए।
आलोचना यह धर्मकथा होते हुए भी सरस प्रेम कथा है । इसमें प्रधान रूप से क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन पांचों विकारों का परिणाम प्रदर्शित करने के लिए अनेक अवान्तर कथाओं का गुम्फन किया गया है। पते के भीतर पते वाले कदली स्तम्भ के समान कथाजाल का संघटन किया गया है । कथानक का जितना विस्तार है, उससे कहीं अधिक वर्णनों का बाहुल्य है, पर कथावस्तु के विकास में किसी तरह की रुकावट नहीं आने पायी है । अन्धविश्वास, मिथ्यात्व, वितण्डावाद एवं क्रोधादि विकारों का विश्लेषण तर्कपूर्ण दार्शनिक शैली में वर्तमान है।
इस कथाकृति में चरित्र हरिभद्र के समान वर्ग विशेष का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। चरित्रों में व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा नहीं हो पायी है । इसके अभिजात्यवर्ग के चरित्रों में पूरा उदात्तीकरण उपलब्ध है, जबकि हरिभद्र के शवर और चांडालों के चरित्र भी उदात्त एवं अनुकरणीय है।
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