Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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नौवें अध्ययन में माकन्दी पुत्र जिनरक्ष और जिनपाल की कथा है। इसमें संयोग तत्त्व (Element of chance) की सुन्दर योजना हुई है । कथारस भी सर्वत्र है। नगर, महल और सार्थवाह परिवार का सुन्दर वर्णन पाया है । वातावरण का समष्टिगत प्रभाव अच्छा दिखायी पड़ता है । इसमें प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने के लिए संकेत किया गया है । इस कथा के प्रारम्भ में पाठक के समक्ष प्रलोभनों का जाल उपस्थित होता है, परन्तु कथा के अन्त में पात-पाते अध्येता विषय के प्रसार को भूल जाता है और चतुर्दिक् से उमड़ती हुई विषयों की निस्सारता अपना पूरा प्रभाव प्रस्तुत कर देती है। ____बारहवें अध्ययन में दुर्दर नामक देव को कथा, चौदहवें अध्ययन में अमात्य तेयलि की कथा, सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी की कथा एवं उन्नीसवें अध्ययन में पुंडरीक और कुंडरीक की कथा सुन्दर और सरस है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में (मानव, देव और व्यन्तर प्रादि को चमत्कार पूर्ण सामान्य घटनाएं निरूपित हैं।
(स्थापत्य की दृष्टि से ये कथाएं बहुत ऊंची उठी हुई हैं। इनमें प्राकार की संक्षिप्तता तो है, किन्तु कथा को मांसलता सर्वत्र नहीं है । कुछ कथाओं में कथारस अवश्य छलछलाता है। देश और काल की परिमिति के भीतर और कुछ परिस्थितियों की संगति में मानव-जीवन की झलक दिखाना और इतिवृत्तों या कथाखण्डों के परिवेशों को समष्टि प्रभाव के उत्कर्षोन्मुख बनाना इन कथाओं के शिल्प के भीतर पाता है । (अनावश्यक वर्णन और मध्यवर्ती व्याख्याएं कथारस के प्रास्वादन में अवरोधक है। इन कथानों का प्रारम्भ और मध्य की अपेक्षा उपसंहार अंश अधिक सशक्त है । ऐसा लगता है कि ये उपसंहार कथा की चरम परणति है और उपसंहार के माध्यम से उपदेश तत्त्व को सामने रखा जाता है ।
__उवासग दसानो के दस अध्ययनों में आनन्द, कामदेव, चुलिनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकोलिक, सद्दालपुत्त, महाशतक, नन्दिनीपिता और शालिनीपिता इन दस श्रावकों की (दिव्य जीवन गाथाओं का चित्रण है। इन्होंने सर्वांशतः संसार को नहीं छोड़ा था, बल्कि ये श्रावक के व्रतों का पालन करते हुए मोक्षमार्ग में संलग्न रहे थे । कथाओं का शिल्प एवं वर्ण्य विषय प्रायः समान है। अतः एकाध कथा के सौन्दर्य विश्लेषण से ही समस्त कथानों को यथार्थ जानकारी हो जायगी ।)
प्रानन्द के चरित्र से स्वस्थ, अरुग्ण, शुद्ध चरित्रवाद या व्यक्तिवाद की स्थापना होती है। चरित्र की व्याप्ति साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की सीमा में प्राबद्ध है । यह चरित्र पारिवारिक जीवन की भित्ति पर आधारित है, जो सामाजिक और धार्मिक जीवन की प्रयोगशाला के रूप में स्वीकार्य है । आनन्द धार्मिक प्रेरणा से आकृष्ट होकर भगवान् महावीर के पास जाता है और उनसे धार्मिक उपदेश की मांग करता है। अवान्तर भगवान् पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों की तथा इनके अतिचारों की व्याख्या करते है। आनन्द प्रसन्नतापूर्वक श्रावक के द्वादशव्रतों को निरतिचार रूप से ग्रहण करता है। इस प्रकार पारिवारिक जीवन में प्रानन्द के चरित्र का सम्यक् विकास घटित होता है और व्यक्तित्व के उन्नयन की चिन्ता एक धार्मिक स्वरूप ग्रहण करती है। प्रानन्द के वंभव और समद्धि का ऊहात्मक चित्रण सम्पत्ति के प्रति उस समय की समाजिक स्थिति और दृष्टिकोण का बोध कराता है, जिस सम्पत्ति की निगर्हणा परिमाण के द्वारा की गयी थी । अतः इस रूप में प्रानन्द के चरित्र में वाभाविकता है । इस कथा में परिमाणों की चर्चा एवं व्यक्तित्व के प्रतिवादी पहलुओं के नियमन के लिए अतिचारों की व्यवस्था प्रादि चरित्र-गठन और व्यक्तित्व-गठन के प्रावश्यक तत्त्वों के रूप में ग्राह य हैं। यद्यपि व्रतों, अतिचारों और परिमाणों का उल्लेख कथातत्त्व का विघटन करता है, तो भी धार्मिक प्रयोजन को सिद्ध करने के कारण कथारस बना ही रहता है।
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