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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । इस प्रकार सामान्यसे गुणस्थानोंका निर्देशकर अब प्रत्येक गुणस्थानोंमें जो २ भाव होते हैं उनका उल्लेख करते हैं।
मिच्छे खलु ओदइओ विदिये पुण पारणामिओ भावो। मिस्से खओबसमिओ अविरदसम्मलि तिण्णेव ॥ ११ ॥ मिथ्यात्वे खलु औदयिको द्वितीये पुनः पारणामिको भावः ।
मिश्रे क्षायोपशमिकः अविरतसम्यक्त्वे त्रय एव ॥ ११ ॥ अर्थ-प्रथम गुणस्थानमें औदयिक भाव होते हैं । और द्वितीय गुणस्थानमें पारणामिक भाव होते हैं। मिश्रमें क्षायोपशमिक भाव होते हैं। और चतुर्थ गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक इस प्रकार तीनोंही भाव होते हैं।
कर्मके उदयसे जो आत्माके परिणाम हों उनको औदयिक भाव कहते हैं। जो कर्मके उपशम होनेसे भाव होते हैं उनको औपशमिक भाव कहते हैं। सर्वघातिस्पर्धकोंके वर्तमान निषेकोंके विना फल दिये ही निर्जरा होनेपर और उसीके ( सर्वघातिस्पर्धकोंके ) आगामिनिषकोंका सदवस्थारूप उपशम होनेपर और देशघाति स्पर्धकोंका उदय होनेपर जो आत्माके परिणाम होते हैं उनको क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । जिनमें कर्मके उदय उपशमादिकी कुछ भी अपेक्षा न हो उनको पारणामिक भाव कहते हैं । ___ उक्त चारों ही गुणस्थानके भाव किस अपेक्षासे कहे हैं उसको दिखानेके लिये सूत्र कहते हैं।
एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु। चारित्तं णत्थि जदो अविरदअन्तेसु ठाणेसु ॥ १२ ॥ एते भावा नियमा दर्शनमोहं प्रतीत्य भणिताः खलु ।
चारित्रं नास्ति यतो अविरतान्तेषु स्थानेषु ॥ १२ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानोंमें जो नियमबद्ध औदयिकादि भाव कहे हैं वे दर्शनमोहनीय कर्मकी अपेक्षासे हैं; क्योंकि चतुर्थगुणस्थानपर्यन्त चारित्र नहीं होता । अर्थात् मिथ्यादृष्टयादि गुणस्थानों में यदि सामान्यसे देखा जाय तो केवल औदयिकादि भाव ही नहीं होते किन्तु क्षायोपशमिकादि भाव भी होते हैं तथापि यदि केवल दर्शनमोहनीय कर्मकी अपेक्षा देखा जाय तो औदयिकादि भाव ही होते हैं, क्योंकि प्रथमगुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमात्रकी अपेक्षा है इसलिये औदयिक भाव ही हैं । द्वितीयगुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा ही नहीं है इसलिये पारणामिकभाव हैं । तृतीयगुणस्थानमें जात्यन्तर सर्वघाति मिश्रप्रकृतिका उदय है इसलिये क्षायोपशमिक भाव होते हैं । इसीप्रकार चतुर्थ गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम क्षय क्षयोपशम तीनोंका सद्भाव है इसलिये तीनों ही प्रकारके भाव होते हैं ।
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