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गोम्मटसारः।
होनेपर होनेवाले जिन परिणामोंसे युक्त जो जीव देखे जाते हैं उन जीवोंको सर्वज्ञदेवने उसी गुणस्थानवाला और परिणामोंको गुणस्थान कहा है । ___ भावार्थ:-जिस प्रकार किसी जीवके दर्शन मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयसे मिथ्यात्व ( मिथ्यादर्शन ) रूप परिणाम हुए तो उस जीवको मिथ्यादृष्टि और उन परिणामोंको मिथ्यात्व गुणस्थान कहेंगे। गुणस्थानोंके १४ चौदह भेद हैं । उनके नाम दो गाथाओंद्वारा दिखाते हैं ।
मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इदरो अपुव अणियह सुहमो य ॥९॥ १ मिथ्यात्वं २ सासनः ३ मिश्रः ४ अविरतसम्यक्त्वं च ५ देशविरतश्च। विरताः ६ प्रमत्तः ७ इतरः ८ अपूर्वः ९ अनिवृत्तिः १० सूक्ष्मश्च ॥ ९॥ अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय । इस सूत्रमें चौथे गुणस्थानके साथ अविरतशब्द अन्त्यदीपक है इसलिये पूर्व के तीन गुणस्थानोंमें भी अविरतपना समझना चाहिये। तथा छटे गुणस्थानके साथका विरत शब्द आदि दीपक है इस लिये यहांसे लेकर सम्पूर्ण गुणस्थान विरत ही होते हैं ऐसा समझना ।
उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादवा ॥ १० ॥ ११ उपशान्तः, १२ क्षीणमोहः, १३ संयोगकेवलिजिनः, १४ अयोगी च ।
चतुर्दश जीवसमासाः क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्याः ॥ १० ॥ अर्थ-उपशान्तमोह,क्षीणमोह,सयोगकेवलिजिन, अयोगकेवली ये १४ चौदह जीवसमास ( गुणस्थान ) हैं । और सिद्ध जीवसमासोंसे रहित हैं । अर्थात् इस सूत्रमें क्रमेण शब्द पड़ा है इससे यह सूचित होता है कि जीवसामान्यके दो भेद हैं एक संसारी दूसरा मुक्त। मुक्तअवस्था संसारपूर्वक ही होती है । संसारियों के गुणस्थानकी अपेक्षा चौदह भेद हैं, इसके अनन्तर क्रमसे गुणस्थानोंसे रहित मुक्त या सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है । इस गाथामें सयोग शब्द अन्त्यदीपक है इस लिये पूर्वके मिथ्यादृष्ट्यादि सबही गुणस्थानवर्ती जीव योगसहित होते हैं । और जिन शब्द मध्यदीपक है इससे असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगी पर्यन्त सभी जिन होते हैं । केवलि शब्द आदिदीपक है इसलिये सयोगी अयोगी तथा सिद्ध तीनों ही केवली होते हैं यह सूचित होता है ।
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