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गोम्मटसारः। यह संज्ञा फिर संज्ञाको मोहयोगभवा ( मोह और योगसे उत्पन्न ) क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि परमार्थसे मोह और योगके द्वारा गुणस्थान ही उत्पन्न होते हैं न कि गुणस्थानसंज्ञा, तथापि यहांपर वाच्यवाचकमें कथंचित् अभेदको मानकर उपचारसे संज्ञाको भी मोहयोगभवा कहा है । _ उक्त वीस प्ररूपणाओंका अन्तर्भाव दो प्ररूपणाओंमें किस अपेक्षासे हो सकता है और वीसप्ररूपणा किस अपेक्षासे कही हैं यह दिखाते हैं।
आदेसे संलीणा जीवा पजत्तिपाणसण्णाओ। उबओगोवि य भेदे वीसं तु परूबणा भणिदा ॥४॥
आदेशे संलीना जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च ।
उपयोगोपि च भेदे विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥ ४ ॥ अर्थ-मार्गणाओंमें ही जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और उपयोग इनका अन्तर्भाव हो सकता है इस लिये अभेद विवक्षासे गुणस्थान और मार्गणा ये दो प्ररूपणा ही माननी चाहिये, वीस प्ररूपणा जो कही हैं वे भेद विवक्षासे हैं।
किस मार्गणामें कौन २ प्ररूपणा अन्तर्भूत हो सकती हैं यह वात तीन गाथाओंद्वारा दिखाते हैं।
इन्दियकाये लीणा जीवा पजत्तिआणभासमणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥ ५ ॥ इन्द्रियकाययोर्लीना जीवाः पर्याप्त्यानभाषामनांसि ।
योगे कायः ज्ञाने अक्षीणि गतिमार्गणायामायुः ॥ ५ ॥ अर्थ-इन्द्रियमार्गणामें तथा कायमार्गणामें खरूपखरूपवत्सम्बन्धकी अपेक्षा, अथवा सामान्यविशेषकी अपेक्षा जीवसमासका अन्तर्भाव हो सकता है, क्योंकि इन्द्रिय तथा काय जीवसमासके खरूप हैं और जीवसमास खरूपवान् हैं । तथा इन्द्रिय और काय विशेष हैं जीवसमास सामान्य है । इसीप्रकार धर्मम्मि सम्बन्धकी अपेक्षा पर्याप्ति भी अन्तर्भूत हो सकती है; क्योंकि इन्द्रिय धर्मी हैं और पर्याप्ति धर्म है। कार्यकारणसम्बन्धकी अपेक्षा श्वासोच्छास प्राण, वचनबल प्राण, तथा मनोबलप्राणका, पर्याप्तिमें अन्तर्भाव हो सकता है; क्योंकि प्राण कार्य है और पर्याप्ति कारण है। कायबल प्राण विशेष है और योग सामान्य है इसलिये सामान्यविशेषकी अपेक्षा योगमार्गणामें कायबलप्राण अन्तर्भूत हो सकता है। कार्यकारणसम्बन्धकी अपेक्षासेही ज्ञानमार्गणामें इन्द्रियोंका अन्तर्भाव होसकता है; क्योंकि ज्ञानकार्य के प्रति लब्धीन्द्रिय कारण हैं । इसीप्रकार गतिमार्गणामें आयुप्राणका अन्तर्भाव साहचर्यसम्बन्धकी अपेक्षा हो सकता है, क्योंकि इन दोनोंका उदय साथही होता है ।
१ इन्द्रियज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न निर्मलता।
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